गुरुवार को 6:1 के बहुमत से दिए गए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पिछड़े समुदायों में हाशिए पर पड़े लोगों के लिए अलग कोटा देने के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का उप-वर्गीकरण स्वीकार्य है। जस्टिस बेला त्रिवेदी ने इस पर असहमति जताई। भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली संविधान पीठ ने शीर्ष अदालत के 2005 के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि राज्य सरकारों के पास आरक्षण के उद्देश्य से एससी की उप-श्रेणियाँ बनाने का कोई अधिकार नहीं है।
सामाजिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की पीठ (6-1 से) ने माना कि अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण एससी श्रेणियों के भीतर अधिक पिछड़े लोगों के लिए अलग कोटा देने के लिए स्वीकार्य है।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उप-वर्गीकरण की अनुमति देते हुए, राज्य किसी उप-वर्ग के लिए 100% आरक्षण निर्धारित नहीं कर सकता। साथ ही, राज्य को उप-वर्ग के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता के बारे में अनुभवजन्य आंकड़ों के आधार पर उप-वर्गीकरण को उचित ठहराना होगा।
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि 6 निर्णय हैं, सभी एकमत हैं। बहुमत ने 2004 के ईवी चिन्नैया निर्णय को खारिज कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि उप-वर्गीकरण की अनुमति नहीं है। न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने असहमति जताई।
7 न्यायाधीशों की संविधान पीठ मुख्य रूप से दो पहलुओं पर विचार कर रही थी: (1) क्या आरक्षित जातियों के साथ उप-वर्गीकरण की अनुमति दी जानी चाहिए, और (2) ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, (2005) 1 एससीसी 394 में दिए गए निर्णय की सत्यता, जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 341 के तहत अधिसूचित ‘अनुसूचित जातियां’ (एससी) एक समरूप समूह बनाती हैं और उन्हें आगे उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति बीआर गवई, विक्रम नाथ, बेला एम त्रिवेदी, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने इस मामले की तीन दिन तक सुनवाई करने के बाद इस साल 8 फरवरी को फैसला सुरक्षित रख लिया था।
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में ऐतिहासिक साक्ष्यों का हवाला दिया, जिससे पता चलता है कि अनुसूचित जातियां समरूप वर्ग नहीं हैं। उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निहित समानता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता। साथ ही, उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 341(2) का उल्लंघन नहीं करता। अनुच्छेद 15 और 16 में ऐसा कुछ भी नहीं है जो राज्य को किसी जाति को उप-वर्गीकृत करने से रोकता हो।
उप-वर्गीकरण का आधार राज्यों द्वारा मात्रात्मक और प्रदर्शन योग्य आंकड़ों द्वारा उचित ठहराया जाना चाहिए कि उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। राज्य अपनी मर्जी या राजनीतिक सुविधा के अनुसार काम नहीं कर सकता और उसका निर्णय न्यायिक समीक्षा के लिए उत्तरदायी है
न्यायमूर्ति बीआर गवई ने अपने सहमत निर्णय में कहा कि अधिक पिछड़े समुदायों को तरजीह देना राज्य का कर्तव्य है। एससी/एसटी की श्रेणी में केवल कुछ लोग ही आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं। जमीनी हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता है और एससी/एसटी के भीतर ऐसी श्रेणियां हैं जिन्हें सदियों से अधिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है।
ईवी चिन्नैया निर्णय में मूल त्रुटि यह है कि यह इस समझ पर आगे बढ़ा कि अनुच्छेद 341 आरक्षण का आधार है। अनुच्छेद 341 केवल आरक्षण के उद्देश्य से जातियों की पहचान से संबंधित है। उप-वर्गीकरण का आधार यह है कि बड़े समूह के एक समूह को अधिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
जस्टिस गवई ने कहा कि राज्य को एससी/एसटी श्रेणी में क्रीमी लेयर की पहचान करने और उन्हें सकारात्मक कार्रवाई के दायरे से बाहर करने के लिए एक नीति विकसित करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि सच्ची समानता हासिल करने का यही एकमात्र तरीका है। जस्टिस विक्रम नाथ ने भी इस दृष्टिकोण से सहमति जताई कि ओबीसी पर लागू क्रीमी लेयर सिद्धांत एससी पर भी लागू होता है।
अपनी असहमति में जस्टिस त्रिवेदी ने कहा कि अनुच्छेद 341 के तहत अधिसूचित अनुसूचित जातियों की राष्ट्रपति सूची को राज्यों द्वारा नहीं बदला जा सकता है। संसद द्वारा अधिनियमित कानून द्वारा ही जातियों को राष्ट्रपति सूची में शामिल या बाहर किया जा सकता है। उप-वर्गीकरण राष्ट्रपति सूची में छेड़छाड़ के बराबर होगा। अनुच्छेद 341 का उद्देश्य एससी-एसटी सूची में भूमिका निभाने वाले किसी भी राजनीतिक कारक को खत्म करना था जस्टिस त्रिवेदी ने कहा कि स्पष्ट और शाब्दिक व्याख्या के नियम को ध्यान में रखना होगा।
राष्ट्रपति सूची के अंतर्गत किसी उप-वर्ग के लिए कोई भी तरजीही व्यवहार उसी श्रेणी के अन्य वर्गों के लाभों से वंचित कर देगा।
इस मामले को 2020 में पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह मामले में 5 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 7 न्यायाधीशों की पीठ को संदर्भित किया गया था। 5 न्यायाधीशों की पीठ ने पाया कि ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, (2005) 1 एससीसी 394 में समन्वय पीठ के फैसले, जिसमें कहा गया था कि उप-वर्गीकरण अनुमेय नहीं था, पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। रेफरिंग बेंच ने तर्क दिया कि ‘ईवी चिन्नैया’ ने इंदिरा साहनी बनाम यूओआई के फैसले को सही तरीके से लागू नहीं किया।
यह संदर्भ पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 की धारा 4(5) की वैधता से संबंधित एक मामले में हुआ था। प्रावधान में कहा गया था कि अनुसूचित जातियों के लिए सीधी भर्ती में आरक्षित कोटे की पचास प्रतिशत रिक्तियां अनुसूचित जातियों के उम्मीदवारों में से पहली वरीयता प्रदान करके, उनकी उपलब्धता के अधीन, बाल्मीकि और मजहबी सिखों को दी जाएंगी।
2010 में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने ईवी चिन्नैया के फैसले पर भरोसा करते हुए इस प्रावधान को रद्द कर दिया।
ई.वी. चिन्नैया मामले में न्यायमूर्ति एन. संतोष हेगड़े, एस.एन. वरियावा, बी.पी. सिंह, एच.के. सेमा, एस.बी. सिन्हा की पीठ ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 341(1) के तहत राष्ट्रपति के आदेश में सभी जातियाँ एक ही वर्ग की सजातीय समूह हैं और उन्हें आगे विभाजित नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 341(1) के तहत भारत के राष्ट्रपति किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में कुछ समूहों को आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जाति के रूप में नामित कर सकते हैं। राज्यों के लिए अनुसूचित जातियों का उक्त पदनाम राज्यपाल के परामर्श से किया जाना चाहिए और फिर सार्वजनिक रूप से अधिसूचित किया जाना चाहिए। यह पदनाम जातियों, नस्लों, जनजातियों या उनके उप-समूहों की श्रेणियों के बीच किया जा सकता है।
इसमें आगे यह भी माना गया कि संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II (राज्य लोक सेवाएँ; राज्य लोक सेवा आयोग) की प्रविष्टि 41 या सूची III (शिक्षा) की प्रविष्टि 25 से संबंधित कोई भी ऐसा कानून संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा।
भारत के अटॉर्नी जनरल श्री आर. वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल श्री तुषार मेहता ने संघ की ओर से आरक्षण में उपवर्गीकरण के पक्ष में दलीलें पेश कीं।
दूसरी ओर, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 341 का उद्देश्य अनुसूचित जातियों के भीतर विभिन्न समूहों/’विविधता’ में समान सूत्र की पहचान करना था- अर्थात भेदभाव और पिछड़ेपन की समानता जो सामाजिक, शैक्षिक आदि किसी भी रूप में हो सकती है।
प्रतिवादियों के अनुसार, अनुच्छेद 341(1) के सही अर्थ में ‘समरूपता’ उसी समय स्थापित हो जाती है जब विभिन्न समूहों के समूह को एक समान वर्ग/’अनुसूचित वर्ग’ के अंतर्गत एक साथ रखा जाता है।
इस बात पर भी जोर दिया गया कि उपवर्गीकरण केवल संसद के दायरे में है, न कि राज्यों के, जैसा कि अनुच्छेद 341(2) के तहत प्रावधान किया गया है। अनुसूचित जातियों की सूची में किसी विशेष पिछड़े वर्ग को शामिल करने या बाहर करने का विवेकाधिकार संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति के पास है। हालांकि, इसने राज्य सरकारों को सूची में नई पहचानों पर चिंता जताने से नहीं रोका, बल्कि एक अलग तरीके से ऐसा किया।
अनुच्छेद 341 (2) में प्रावधान है – संसद कानून द्वारा खंड (1) के तहत जारी अधिसूचना में निर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची में किसी भी जाति, नस्ल या जनजाति या किसी भी जाति, नस्ल या जनजाति के हिस्से या समूह को शामिल या बाहर कर सकती है, लेकिन जैसा कि पूर्वोक्त है, उक्त खंड के तहत जारी अधिसूचना में किसी भी बाद की अधिसूचना द्वारा बदलाव नहीं किया जाएगा।
एक अतिरिक्त तर्क यह दिया गया कि उपवर्गीकरण कैसे अनुसूचित जाति श्रेणी के भीतर अन्य उपवर्गों के लिए आरक्षण को निरर्थक अभ्यास बना देगा, क्योंकि लाभों का एकीकृत कार्यान्वयन नहीं होगा। इसका मतलब होगा ‘रिवर्स प्राण-प्रतिष्ठा’।
प्रतिवादियों की ओर से, वरिष्ठ अधिवक्ता मनोज स्वरूप ने पर्याप्त प्रस्तुतियाँ दीं, जिनका पालन वरिष्ठ अधिवक्ता श्री संजय हेगड़े सहित कुछ अन्य लोगों सहित अन्य हस्तक्षेपकर्ताओं ने किया।