सुप्रीम कोर्ट ने आज एक अहम मामले में सुनवाई करते हुए अहम टिप्पणी की। शीर्ष अदालत ने कहा कि डाइंग डिक्लरेशन यानी मरने से पहले दिए गए बयानों पर भरोसा करते समय अदालतों को बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। भले ही कानून ये अनुमान लगाता है कि ये सच होते हैं। निचली अदालतों के निष्कर्षों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट इस बात से सहमत नहीं था कि केवल मृत्युपूर्व दिए गए बयानों के आधार पर दोषसिद्धि को बरकरार रखा जा सकता है।

दरअसल, इरफान को अपने दो भाइयों और अपने बेटे की हत्या में दोषी ठहराया गया था। आरोप है कि उसने सोते समय आग लगा दी और उन्हें कमरे में बंद कर दिया। अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि यह इरफान के दूसरी बार शादी करने के इरादे पर असहमति के कारण हुआ था। जबकि तीनों को पड़ोसियों और परिवार के अन्य सदस्यों ने बचाने की कोशिश की लेकिन अस्पताल में अंततः उन्होंने दम तोड़ दिया। हालांकि, पुलिस तीन पीड़ितों में से दो के मृत्युपूर्व बयान दर्ज करने में कामयाब रही, जो अभियोजन पक्ष के मामले का मुख्य आधार बन गया। दो मृत्युपूर्व बयानों के आधार पर, सत्र अदालत दोषी करार देने के फैसले पर पहुंची, जिसे बाद में बयानों में कोई विसंगति नहीं पाए जाने के बाद 2018 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बरकरार रखा था।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम इस बात से संतुष्ट नहीं हैं कि अभियोजन पक्ष ने अपीलकर्ता-दोषी के खिलाफ अपना मामला उचित संदेह से परे साबित कर दिया है। इसलिए, हम इन अपील को स्वीकार करते हैं और अपीलकर्ता-दोषी को उसके खिलाफ लगाए गए सभी आरोपों से बरी करते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों को इन विषयों पर गौर करने को कहा

  1. क्या बयान देने वाला व्यक्ति मरने की उम्मीद कर रहा था?
  2. क्या बयान जल्द से जल्द दिया गया?
  3. क्या घोषणा करने वाले व्यक्ति को पुलिस या किसी इच्छुक पार्टी द्वारा सिखाया गया था या प्रेरित किया गया था?
  4. क्या बयान ठीक से दर्ज किया गया?
  5. क्या बयान देने वाले व्यक्ति ने संबंधित घटना को स्पष्ट रूप से देखा?
  6. क्या मृत्युपूर्व कथन में घटनाओं का क्रम पूरे पाठ में एक समान है?
  7. क्या यह घोषणा स्वेच्छा से की गई थी?
  8. एकाधिक घोषणाओं के मामले में, पहला दूसरों द्वारा विस्तृत घटनाओं के अनुरूप है?
  9. क्या घोषणा करने वाला व्यक्ति अपनी चोटों के बावजूद स्वयं ऐसा करने में सक्षम था?

 

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