उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव में एक समीकरण की खूब चर्चा रही, ये समीकरण है- मायावती का दलित-मुस्लिम समीकरण। मायावती ने 17 मेयर सीटों में से 11 पर मुसलमान कैंडिडेट उतारे तो सियासी गलियारों में एक नई चर्चा शुरू हो गई। कहा गया कि मायावती का नया गठजोड़ बनाने का ये प्रयोग सपा को तो खत्म कर दी दोगा, भाजपा पर भी भारी पड़ेगा। अब जब नतीजे आ गए हैं तो ये कहा जा सकता है कि एक मुस्लिम वोटर मुसलमान को जिताने के नाम पर किसी भी मुसलमान को वोट नहीं दे देता है। वो नाम में अली और मुहम्मद लगे होने के साथ उसकी राजनीतिक हैसियत को भी परखता है।
मायावती मेयर की दो सीटों पर लड़ती दिखीं, इनमें सबसे बेहतर रही सहारनपुर, जहां हारजीत का फर्क 10 हजार से कम रहा है। दूसरी आगरा, यहां भी बसपा एक हद तक लड़कर हारी है। सहारनपुर में बसपा ने मुस्लिम कैंडिडेट दिया था और मुस्लिमों का वोट भी उसको मिला। आगरा में बाल्मिकी कैंडिडेट था लेकिन फिर भी मुसलमानों ने उसको वोट दिया। यानी मुस्लिमों ने सिर्फ मुस्लिम देखकर बसपा को वोट नहीं दिया।
सीट दर सीट बात करें तो सहारनपुर में मुस्लिमों के वोट का बड़ा हिस्सा बसपा के पक्ष में आया। इसकी वजह इमरान मसूद का लोगों के बीच एक राजनीतिक वजूद होना है। वो भले ही लंबे समय से कोई इलेक्शन ना जीते हों लेकिन इस बात को उनके विरोधी भी मानते हैं कि वो चुनाव लड़ना खूब अच्छे से जान हैं।
बसपा से 2017 में मेरठ से सुनीता वर्मा मेयर बनी थीं। उनकी जीत में मुसलमानों के वोट का अहम रोल था। चुनाव सुनीता के पति पूर्व विधायक योगेश वर्मा ने उनको लड़ाया और वो जीतीं। इस चुनाव में हसमत मलिक को बसपा ने उतारा। मेरठ के मुसलमान सपा को वोट देने के पक्ष में नहीं थे, ये काउंटिंग के बाद साफ हो गया है लेकिन उन्होंने बसपा को भी वोट नहीं किया। वजह साफ है, जिस तरह से हसमत मलिक स्टेज पर असहज दिखे, जिस तरह की बातें वो करते रहे। जिस तरह वो मीडिया में बोले, उससे उनकी छवि एक कम समझ के सीधे साधे आदमी की बनी। नतीजा ये हुआ कि मुस्लिमों की वोटों मेजॉरिटी AIMIM के पक्ष में चली गई। नतीजों से साफ है कि अगर मेरठ में कोई दमदार मुस्लिम प्रत्याशी बसपा ने दिया होता तो नतीजा 2017 वाला हो सकता था।
मुरादाबाद में बसपा ने मोहम्मद यामीन को उतारा था लेकिन वो मुसलमानों की पसंद नहीं बन सके। इसकी वजह ये थी कि वो कांग्रेस के रिजवान कुरैशी के सामने मुसलमानों को कमजोर लगे। हारने के बाद भी रिजवान को जहां मुरादाबाद में 1 लाख 18 हजार वोट मिले, वहीं बसपा के यामीन को सिर्फ 15 हजार। यहां मुसलमानों का ज्यादातर वोट सपा और बसपा दोनों को छोडडकर कांग्रेस के पास गया, तो इसकी अहम वजह कैंडिडेट बने।
अलीगढ़ में बसपा से सलमान शाहिद प्रत्याशी थे। सपा ने हाजी जमीर उल्लाह को मेयर का चुनाव लड़ाया। जमीर उल्लाह को पूर्व विधायक होने का फायदा मिला और वो मजबूती से चुनाव लड़ते दिखे। नतीजा ये हुआ कि मुस्लिम वोट इस सीट पर जमीर उल्लाह की तरफ मुड़ गए। निश्चित ही अगर जमीर से मजबूत मुस्लिमों को बसपा का कैंडिडेट मिलता तो वो पाला बदल सकते थे।
प्रयागराज में बसपा ने सईद अहमद को उतारा। सईद मुस्लिमों की पसंद नहीं बन सके। ऐसे में यहां सपा, बसपा और कांग्रेस में मुस्लिम वोटों का ज्यादातर हिस्सा बंट गया। गाजियाबाद में भी बसपा का प्रत्याशी कुछ मुस्लिम पॉकेट के वोट हासिल करने तक ही सीमित रहीं।
लखनऊ में भाजपा की सुषमा खर्कवाल के सामने सपा ने वंदना मिश्रा को लड़ाया। वंदना मिश्रा सिविल सोसायटी में काफी सक्रिय हैं। बसपा ने शाहीन बानों को मुकाबले में उतारा लेकिन वो कोई प्रभाव नहीं छोड़ सकीं। नतीजा ये हुआ कि मुस्लिमों का बड़ा हिस्सा वंदना मिश्रा के पक्ष में दिखा।
शाहजहांपुर में बीजेपी की अचर्ना वर्मा और कांग्रेस की निकहत इकबाल में मुकाबला रहा। बसपा ने यहां से शगुफ्ता अंजुम को प्रत्याशी बनाया था लेकिन मुस्लिमों की पहली पसंद निकहत रहीं। इसका नतीजा ये हुआ कि बसपा की शगुफ्ता 5,543 वोट ही हासिल कर सकीं।
मथुरा में मेयर पद के लिए बसपा ने मोहतसिम अहमद को अपना उम्मीदवार बनाया लेकिन वो एकदम बेअसर रहे। सपा से हिन्दू कैंडिडेट होने के बावजूद मुस्लिम वोटों का ज्यादातर हिस्सा उस तरफ गया। नतीजा ये रहा कि बीजेपी के विनोद अग्रवाल और सपा के तुलसीराम शर्मा की लड़ाई में बसपा के मोहतसिम कहीं नहीं दिखे।
बरेली में मेयर बनने वाले बीजेपी केउमेश गौतम की लड़ाई समाजवादी पार्टी समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार डॉ आईएस तोमर से रही। बरेली में मुस्लिम वोट निर्णायक हैं लेकिन बसपा की तरफ से लड़े मोहम्मद यूसुफ को सिर्फ 16852 वोट मिले।
फिरोजाबाद में बसपा ने रुखसाना बेगम को उतारा। सपा से बसपा में आए महबूब अजीज की पत्नी रुखसाना को बसपा ने उतारा। मुस्लिमों के बीच उन्होंने लगातार प्रचार लेकिन वो पहली पसंद नहीं बन सकीं। फिरोजाबाद में मुस्लिमों का बड़ा हिस्सा सपा की मसरूर फातिमा की तरफ चला गया। हालांकि जीत भाजपा की ही हुई।
इसका नतीजा यही दिखता है कि मुस्लिमों को कोई दल सिर्फ ये कहकर वोट नहीं ले सकती है कि हमने आपके ही मजहब के आदमी को टिकट दिया है। सहारनपुर की तरह मजबूत कैंडिडेट दिखने पर वो एकतरफा वोट कर सकते हैं तो शाहजहांपुर की तरह मुस्लिम होने के बावजूद बसपा कैंडिडेट 5 हजार पर भी सिमट सकता है।

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