दुनिया में आज 25 वर्ष से कम उम्र का हर पांचवां व्यक्ति भारत में निवास करता है और भारत की 47 प्रतिशत आबादी 25 प्रतिशत से कम उम्र की है। इसका आशय है कि भारत की आबादी में 65 करोड़ लोग 25 वर्ष से कम उम्र वर्ग में हैं। साफ है कि ये वो युवा है जो उदारीकरण के बाद के भारत में पैदा हुआ था। भारत में दो तिहाई आबादी अब उन लोगों की ही है जो उदारीकरण के बाद पैदा हुई थी। भारत की आबादी की औसत उम्र आज 28 वर्ष है।
इसका आशय है भारत में दुनिया की सबसे अधिक कामकाजी आबादी होने के साथ दुनिया की सबसे बड़ा युवा उपभोक्ता वर्ग भी होगा, जो किसी भी अर्थव्यवस्था का दशा और दिशा को बदलने की क्षमता रखता है।
पिछले तीन वर्षों में, चीन की कामकाजी आबादी में 4 करोड़ से अधिक की कमी आई है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2040 तक, चीन में 65 या उससे अधिक उम्र के लोगों की संख्या 25 वर्ष से कम उम्र के लोगों से अधिक हो जाएगी। अर्थात चीन में डिपेंडेंसी रेशिया चिंताजनक स्तर तक पहुंच जाएगा।
चीन में 2050 तक वे 65 वर्ष से अधिक लोगों का अनुपात जनसंख्या का 30% तक हो सकता है। यानी काम करने वालों का अनुपात घटेगा और उन पर निर्भर रहने वालों का अनुपात बढ़ेगा। यही चीज है जो चीन को परेशान कर रही है।
जबकि भारत में कामकाजी आबादी का अनुपात बढ़ रहा है और उन पर निर्भर आबादी का अनुपात बढ़ने के बावजूद कतई चिंताजनक नहीं है।
भारत इस डेमोग्राफिक डिविडेंड का लाभ तभी उठा सकता है जब भारत अपनी इस युवा कामकाजी अबादी के लिए पर्याप्त रोजगार पैदा कर सके। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, भारत की कामकाजी उम्र की आबादी का केवल 40% काम करता है या काम करना चाहता है।
इसका कारण है, भारत में केवल 10% कामकाजी उम्र की महिलाएं श्रम बल में भाग ले रही थीं, जबकि चीन में यह आंकड़ा 69% था।
आबादी प्रबंधन में भारत ने वो कर दिखाया है जो अब तक कोई देश नहीं कर सका। स्वतंत्रता के बाद से भारत की आबादी में एक अरब लोगों से अधिक की बढ़ोतरी हो जाने के बावजूद भारत की आबादी को लेकर कहीं कोई व्यापक चिंता का स्वर दिखने के बजाए आबादी को ताकत के रूप में इस्तेमाल किए जाने की बातें हो रही हैं।
डेमोग्राफिक डिजास्टर की बजाए डेमोग्राफिक डिविडेंड की बातें हो रही हैं। इतना ही नहीं, भारत में पिछले 75 सालों में आबादी बढ़ी अवश्य है लेकिन भारत ने आबादी बढ़ोतरी पर भी लगाम लगाने में सफलता हासिल कर ली है।
वह भी चिंताजनक गरीबी और सीमित शिक्षा और संसाधनों के होते हुए भी लोकतांत्रिक साधनों को अपनाते हुए। भारत के अलावा दुनिया को कोई देश ऐसा नहीं कर सका। भारत के 17 राज्यों में तो आबादी बढ़ोतरी की दर रिप्लेसमेंट स्तर पर पहुंच चुकी है।
भारत की आबादी चीन से अधिक हो जाने को दुनिया भर में एक संभावना के रूप में देखा जा रहा है। यूएन ने भी इसका स्वागत किया है। यूएन के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग में आबादी खंड के निदेशक जॉन विल्मोथ का कहना है कि दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश होने के नाते भारत अब सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट का स्वभाविक दावेदार बन गया था।
गौरतलब है कि 1971 में ताइवान के बजाए चीन को सुरक्षा परिषद की स्थाई सीट इसी कारण दी गई थी कि चीन की आबादी ताइवान से कहीं अधिक थी।