आरएसएस प्रमुख ने देशभर में नये मंदिर-मस्जिद विवाद उठने पर हाल ही में चिंता जताई थी। उनकी इस टिप्पणी पर खूब बवाल हुआ था। साधु-संत तो खुलकर इस टिप्पणी के विरोध में उतर आये थे। भाजपा नेताओं से भी इस मुद्दे पर कुछ बोलते नहीं बन रहा था। खुद संघ के नेता भी सकते में थे कि इस संकट का हल कैसे निकाला जाये। अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक हिंदी साप्ताहिक ने अपने संपादकीय में भागवत के बयान से उपजे विवाद को शांत करने का प्रयास किया है। हम आपको बता दें कि संपादकीय में कहा गया है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत की हालिया टिप्पणी समाज से एक “समझदारी भरा रुख” अपनाने का “स्पष्ट आह्वान” है। संपादकीय ने इस मुद्दे पर “अनावश्यक बहस और भ्रामक प्रचार” के प्रति भी आगाह किया है।

हम आपको याद दिला दें कि उन्नीस दिसंबर को पुणे में सहजीवन व्याख्यानमाला में “भारत: विश्वगुरु” विषय पर व्याख्यान देते हुए भागवत ने समावेशी समाज की वकालत की और कहा था कि दुनिया को यह दिखाने की जरूरत है कि भारत सद्भाव के साथ रह सकता है। अब आरएसएस के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ के संपादक हितेश शंकर के 28 दिसंबर के संपादकीय में कहा गया है, “आरएसएस प्रमुख मोहनराव भागवत के मंदिरों पर दिए गए हालिया बयान के बाद मीडिया जगत में घमासान (वाकयुद्ध) छिड़ गया है। या यूं कहें कि यह जानबूझकर किया जा रहा है। एक स्पष्ट बयान के अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं। हर दिन नई प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।” उन्होंने कहा कि इन प्रतिक्रियाओं में स्वतःस्फूर्त सामाजिक राय के बजाय “सोशल मीडिया विशेषज्ञों द्वारा उत्पन्न किया गया कोहराम और उन्माद” अधिक दिखाई देता है।

संपादकीय में कहा गया कि भागवत का बयान समाज से इस मुद्दे के प्रति समझदारी भरा रुख अपनाने का स्पष्ट आह्वान है। इसमें कहा गया है, “यह सही भी है। मंदिर हिंदुओं की आस्था के केंद्र हैं, लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए उनका इस्तेमाल कतई स्वीकार्य नहीं है। आज के दौर में मंदिरों से जुड़े मुद्दों पर अनावश्यक बहस और भ्रामक दुष्प्रचार को बढ़ावा देना चिंताजनक प्रवृत्ति है। सोशल मीडिया ने इस प्रवृत्ति को और तेज कर दिया है।” संपादकीय के अनुसार, “खुद को सामाजिक कहने वाले कुछ असामाजिक तत्व सोशल मीडिया मंचों पर स्वयंभू रक्षक और विचारक बन बैठे हैं। ऐसे अविवेकी विचारकों से दूर रहने की जरूरत है जो समाज के भावनात्मक मुद्दों पर जनभावनाओं का इस्तेमाल करते हैं।” संपादकीय में कहा गया है कि भारत एक ऐसी सभ्यता और संस्कृति का नाम है, जिसने हजारों वर्षों से न केवल अनेकता में एकता के दर्शन का प्रचार किया, बल्कि उसे जीया और आत्मसात भी किया।

इसमें कहा गया है, “यह भूमि केवल भौगोलिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों का जीवंत स्पंदन है। ऐसे में मंदिरों का महत्व केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक और ऐतिहासिक भी है।” संपादकीय में कहा गया है कि ऐतिहासिक और आध्यात्मिक मूल्यों से रहित, लेकिन राजनीतिक स्वार्थ से भरे “कुछ तत्वों” ने अपनी राजनीति को बढ़ावा देना, समुदायों को भड़काना और हर गली और इलाके में “हिंदू मंदिरों” को बचाने की आड़ में खुद को सर्वश्रेष्ठ हिंदू विचारक के रूप में पेश करना शुरू कर दिया है। इसमें कहा गया है, “मंदिरों की खोज को सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत करना शायद मीडिया के लिए भी एक चलन बन गया है और यह एक प्रकार का मसाला है, जो 24 घंटे चलने वाले (समाचार) चैनलों और समाचार बाजार की भूख को पूरा रखता है।” इसमें पूछा गया है, “लेकिन सवाल यह है कि ऐसी खबरों और हर दिन सामने आने वाले विषयों से समाज को क्या संदेश जा रहा है? एक समाज के रूप में, क्या हम ऐसे विषयों को उठाने और इसके परिणामों का सामना करने के लिए तैयार हैं?”

हम आपको यह भी बता दें कि पांचजन्य के संपादकीय से कुछ दिन पहले उसके सहयोगी प्रकाशन ‘ऑर्गनाइजर’ ने कहा था कि सोमनाथ से लेकर संभल और उससे आगे तक, यह ऐतिहासिक सच्चाई जानने और “सभ्यतागत न्याय” की मांग की लड़ाई है। संपादकीय पर विवाद बढ़ने पर ‘ऑर्गनाइजर’ के संपादक ने स्पष्ट किया था कि साप्ताहिक पत्रिका “सामाजिक सद्भाव” के लिए खड़ी है और वह “भागवत के भाषण” का भी समर्थन करती है।

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