उपेक्षित ग्रामीण महिलाओं को उचित अवसर मिलें तो वे बड़ी ऊंचाइयां छू सकती हैं। इस गहरे विश्वास के साथ महिला जागृति के अनेक उल्लेखनीय प्रयास देश में हुए हैं, जिनमें अब बुंदेलखंड की जल-सहेलियों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान मिल गया है।
एक दशक पूर्व आरंभ हुए इस प्रयास के अंतर्गत परमार्थ संस्था ने अनेक गांवों में अधिक व्यापक सामाजिक भूमिका निभाने की दृष्टि से सक्रिय लगभग 1600 महिलाओं को विशेषकर जल-संरक्षण और स्वच्छता के प्रयासों से जोड़ा है। सेवा-भाव से, बिना किसी वेतन या मानदेय के प्रयासरत इन महिलाओं ने अनेक चर्चित उपलब्धियां भी प्राप्त की हैं, और सरकारी तथा गैर-सरकारी स्तरों पर बड़े पुरस्कार भी प्राप्त कर चुकी हैं।
सिरकुंवर (ग्राम उवां, ब्लॉक तालबेहट) ललितपुर जिले की ऐसी ही साहसी और कर्मठ महिला हैं जिन्होंने अनेक प्रतिकूल स्थितियों से उभर कर अपने परिवार को ही नहीं संभाला अपितु पूरे गांव की अनेक समस्याओं को सुलझाने और टिकाऊ आजीविका का आधार तैयार करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 2011 में परमार्थ संस्था के जल-संरक्षण कार्यक्रमों में उनका चयन जल-सखी के रूप में हुआ था। ‘पानी ही जीवन है’ की सोच के आधार पर प्रयासरत सिरकुंवर ने तीन चैक डैम बनाने में योगदान दिया। बंधीकरण और मेढ़बंदी का कार्य भी करवाया। उन्हें मनरेगा कार्यों पर मेट के रूप में नियुक्त भी किया गया और इन कार्यों को ठीक से चलाने, मजदूरों को समय पर मजदूरी दिलवाने में उन्होंने योगदान दिया। सिरकुंवर की सक्रियता से शौचालय निर्माण में तेजी आई और लगभग 120 शौचालय दूसरे दौर में बने। उज्ज्वला योजना के अंतर्गत रसोई गैस की व्यवस्था में उन्होंने सुधार करवाया और भ्रष्टाचार को कम किया। आंगनवाड़ी, मिड-डे मील ठीक से चल रहे हैं कि नहीं, इस पर भी सिरकुंवर की निगरानी रहती है।
इस तरह विभिन्न तरह के विकास कार्यों में सक्रिय रहने के कारण विभिन्न विभागों में सिरकुंवर को ‘नेता जी’ के रूप में पहचाना जाता है पर इसके साथ-साथ अपनी खेती संभालने में, किचन गार्डन को संवारने में, परिवार की 6-7 एकड़ भूमि आधारित टिकाऊ आजीविका की मजबूती में भी उन्होंने योगदान दिया है। उनके पति जब इंदौर में प्रवासी मजदूर थे तब दुर्घटना में विकलांग हो गए थे। तब से वह विकलांगता के कारण मेहनत वाले कार्य नहीं कर सके। कुछ समय पहले त्रासद परिस्थितियों में सिरकुंवर के बेटे की मृत्यु भी हो गई। इतनी प्रतिकूल स्थितियों में उभर कर भी सिरकुंवर ने घर को संभाला है। एक बार तो कुएं से पानी लाते समय वे स्वयं कुएं में गिर गई थीं, तब किसी तरह उन्हें बचाया गया। भीषण कठिनाइयों के बीच साहस से आगे आने का प्रयास सिरकुंवर ने सदा किया है, और इसके सार्थक परिणाम भी मिले हैं। अपनी बहू, नाती-नातिन और विकलांगता प्रभावित पति का भरपूर साथ निभाते हुए सिरकुंवर ने महत्त्वपूर्ण सामाजिक भूमिका भी निभाई हैं।
शारदा वंशकार विजयपुरा गांव (ब्लॉक तालबेहट, जिला ललितपुर) की सामाजिक दृष्टि से सक्रिय महिला हैं जिनका चयन 2018 में जल-सखी के रूप में हुआ था। उन्होंने अपने और आसपास के गांववासियों के अनुभव से सीख लिया था कि गांव में पानी न रहे तो प्रवासी मजदूर के रूप में दर-दर भटकना पड़ता है। अत: जब गांव में जल-संरक्षण की चर्चा परमार्थ संस्था ने आरंभ की तो उन्होंने इसके महत्त्व को भर-पूर समझा। लगभग 30 महिलाओं के समूह को इस मुद्दे पर अधिक सक्रिय करने में उन्हें सफलता भी मिली।
यहां जल-संरक्षण और सिंचाई की अच्छी संभावना बरुआ नदी के रूप में मौजूद थी पर इस पर पहले बनाया गया चेक डैम टूट-फूट गया था और रही-सही कसर खनन माफिया ने बालू के अत्यधिक खनन से पूरी कर दी थी। इस स्थिति में न सिंचाई का लाभ मिल पा रहा था, और न पानी को रोक कर कुओं का जल-स्तर बेहतर किया जा सकता था। इस स्थिति में शारदा और उनकी महिला साथियों ने परमार्थ के कार्यकर्ताओं से विमर्श कर निर्णय लिया कि चूंकि अभी पक्के चेक डैम के संसाधन उपलब्ध नहीं हैं, अत: हम रेत भरी बोरियों से अस्थायी चेक डैम बना लेंगी। लगभग 5000 बोरियां परमार्थ संस्था ने उपलब्ध करवाई। इनमें रेत भर कर इन्हें सीया गया और फिर इन्हें उठा कर नदी में जमाया गया। बहुत मेहनत का कार्य था और महिलाओं सहित अन्य गांववासियों ने बिना किसी मजदूरी के यह कार्य सहयोग और एकता से किया। नतीजा यह हुआ कि यहां के आसपास के अनेक गांवों के किसानों को सिंचाई का लाभ मिलने लगा। आसपास का जल-स्तर भी बढ़ गया। आगे चलकर प्रशासन का सहयोग भी मिला। शारदा ने हिम्मत कर खनन माफिया से नदी की रक्षा की अपील प्रशासन से की तो प्रशासन ने जांच कर इस पर समुचित कार्यवाई भी की। नदी के आसपास वृक्षारोपण भी किया गया। शारदा के इन अथक प्रयासों की व्यापक प्रशंसा हुई। राष्ट्रपति द्रौपदी मुमरू ने उन्हें विज्ञान भवन में ‘कैच द रेन’ पुरस्कार से सम्मानित किया। शारदा चाहती हैं कि आगे नदी पर पक्का चेक डैम भी बने। जेरवी तलैया के सुधार और गहरीकरण में भी उन्होंने सहयोग किया। मनरेगा के उचित क्रियान्वयन, खुले में शौच को रोकने, हैंडपंप लगवाने में भी उनकी सक्रियता रही है।
पुष्पा खाकरौन गांव (ब्लॉक मोहनगढ़, जिला टीकमगढ़) की प्रतिभाशाली महिला हैं। उन्होंने बीए पास की है और मास्टर ऑफ सोशल वर्क के लिए पढ़ रही हैं। उनमें सेवा भावना अधिक है। उन्होंने पहले बच्चों को निशुल्क पढ़ाया और फिर ‘जल-सहेली’ के रूप में चयनित होने पर जल-संरक्षण के लिए जैविक खेती और अन्य सार्थक प्रयासों के लिए अपने गांव में योगदान दिया। इस क्षेत्र में बारगी नदी को नया जीवन देने, चेक डैम की मरम्मत करने, खेत-तालाब बनाने, जैविक खेती (विशेषकर सब्जी उत्पादन) को प्रोत्साहन देने के विभिन्न कार्यों में पुष्पा ने योगदान दिया। पुष्पा ने अनेक अन्य ग्रामीण महिलाओं को भी इस तरह के योगदान के लिए तैयार किया ताकि वे मिल-जुल कर बेहतर उपलब्धि प्राप्त कर सकें।
सोना सहरिया तालबेहट ब्लॉक के बम्होरी गांव में रहती हैं। इस आदिवासी महिला ने अपने परिवार को प्रवासी मजदूरी से हटाकर टिकाऊ कृषि आधारित आजीविका में लाने के लिए बहुत मेहनत की और उन्हें सफलता भी मिली। इस गांव में नारायणी नाले पर चेक डैम बना कर सिंचाई की सुविधा बढ़ाने की अच्छी संभावना थी पर यह क्षेत्र अभी सुनसान पड़ा था। सोना ने अन्य महिलाओं के सहयोग से इस चेक डैम के लिए प्रयास किए और अंत में इस पर मनरेगा के अंतर्गत कार्य करने की स्वीकृति प्राप्त हो गई। दूसरी ओर 50-60 एकड़ की सिंचाई में सहायता प्राप्त हुई। आसपास के कुओं का जल-स्तर बढ़ गया। इन महिलाओं ने भली-भांति समझ लिया है कि प्रवासी मजदूरी पर निर्भरता समाप्त कर गांव में ही टिकाऊ आजीविका की ओर लौटने में जल-संरक्षण की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका है।