जलवायु बदलाव के इस दौर में बढ़ती गर्मी के प्रकोप से दुनिया के अधिकांश देश त्रस्त हैं, पर अधिक विकट स्थिति गरीब देशों की है। इसी तरह यदि आंतरिक स्तर पर देखें तो विभिन्न देशों, शहरों और गांवों में गर्मी का सबसे अधिक प्रकोप सबसे निर्धन लोगों को झेलना पड़ता है।
बढ़ती गर्मी के द्योतक के रूप में प्राय: तापमान के आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं और ये हमें काफी निश्चित तौर पर बताते हैं कि बहुत से स्थानों पर हाल के वर्षो और दशकों में गर्मी का प्रकोप बढ़ गया है। तिस पर जहां हरियाली कम हुई है, सीमेंट-कंक्रीट का जाल बढ़ा है, वहां बढ़ती गर्मी का असर और भी घातक रूप में नजर आ रहा है। इस बारे में अनेक अध्ययन भी उपलब्ध हैं।
दूसरी ओर, गर्मी के बढ़ते प्रकोप का एक ऐसा पक्ष भी है जो अति महत्तपूर्ण होते हुए भी अपेक्षाकृत उपेक्षित है।
यह है आर्थिक-सामाजिक विषमता का पक्ष। जिस समाज, नगर या गांव में अधिक विषमता और अधिक असमानता होगी, वहां ऐसे साधनहीन परिवारों का प्रतिशत भी अधिक होगा जो जलवायु बदलाव के दौर में बढ़ती गर्मी के प्रकोप और अन्य तरह के प्रतिकूल मौसम के दुष्परिणामों को सहने में कम सक्षम हैं। जहां गर्मी के बढ़ते प्रकोप और लू के थपेड़ों के बीच साधन-संपन्न व्यक्ति अपने बचाव और आराम के विभिन्न उपाय करने में समर्थ है, वहां निर्धन परिवारों के लिए यह संभव नहीं है और अनेक दिहाड़ी मजदूर परिवार के लिए रोटी और बुनियादी जरूरतों की व्यवस्था के लिए घोर गर्मी में भी मजदूरी ढूंढने के लिए मजबूर हैं। यह स्थिति गांवों और शहरों, दोनों जगह देखी जा सकती है। पुरुष ही नहीं, अनेक स्थानों पर तो महिला मजदूर भी गर्मी का बहुत प्रकोप झेल रही हैं।
जहां किसानों और स्व-रोजगार वालों के लिए कम से कम यह संभव है कि वे अपने काम के घंटों को गर्मी से बचाव की दृष्टि से बदल लें, पर अनेक मजदूरों के लिए यह निर्णय भी अपने स्तर पर लेना संभव नहीं है। अत: यह बहुत जरूरी है कि विशेषकर खुले क्षेत्र में और अधिक गर्मी की स्थिति में कार्य करने वाले मजदूरों की रक्षा के लिए विशेष कदम सरकार उठाए। देश में गर्मी के अधिक प्रकोप के रूप में चर्चित क्षेत्रों में बुदेलखंड का नाम विशेष तौर पर लिया जाता है। यहां तापमान बहुत ज्यादा रहा है और कई दिनों तक लगातार 42 सेंटीग्रेड से 49 सेंटीग्रेड के बीच रहा। इसके अतिरिक्त, नदियों और अन्य जल-स्रेतों के सिकुड़ने या लुप्त होने, अंधाधुंध बालू और पत्थर के खनन, वृक्षों की कटाई, सिमटते वनों के कारण भी इस क्षेत्र में गर्मी का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। घर-घर में नल तो लग गए हैं पर इसके बावजूद जल-संकट तो बना हुआ है।
इस क्षेत्र में गर्मी के विकट प्रकोप के दिनों में जब हाल ही में यह लेखक दूर-दूर के गांवों में गया तो यही सच्चाई बार-बार उभर कर सामने आई कि जहां सामाजिक विषमता और अन्याय है, दबंगी और सामंतशाही का असर अधिक है, वहां एक ओर तो सामान्य समय में ही निर्धन और जनसाधारण अधिक समस्याओं से त्रस्त होते हैं और गर्मी के बढ़ते प्रकोप और प्रतिकूल मौसम के दौर में उनकी समस्याएं और भी बढ़ जाती हैं। जब सुबह 9-10 से ही गर्मी बहुत बढ़ने लगती थी तो खुले में निर्माण कार्य या कृषि कार्य दिन-भर करने की हिम्मत कोई कैसे जुटा सकता है? तिस पर यदि दोपहर में छाया में विश्राम और ठंडे पानी की सुविधा भी सही ढंग से उपलब्ध न हो तो स्थिति और भी विकट हो जाती है। फिर भी मजबूरी में, पेट भरने के लिए बहुत विकट स्थितियों में भी मजदूरी जारी रहती है। प्राय: शहरों के दिहाड़ी मजदूरों को नाकों या चौकों पर बहुत समय तक गर्मी में मजदूरी का इंतजार करना पड़ता है, तभी उनको दिहाड़ी के कार्य पर लिया जाता है।
अनेक मजदूर आसपास के गांवों से भी शहरों में दिहाड़ी की मजदूरी के लिए जाते हैं, फिर चाहे गर्मी का प्रकोप कितना भी अधिक हो। ऐसा ही एक मात्र 18 वर्ष का बहुत सीधा-सादा दलित भूमिहीन युवक रत्नेश जब जून के प्रथम सप्ताह में अपने गांव से बांदा नगर की ओर मजदूरी के लिए जा रहा था, तो उसे गांव के दबंगों ने इस आधार पर रोका-टोका और गाली-गलौज की कि उसे उनके यहां मजदूरी करने के लिए मजबूरन जाना पड़ेगा। जब रत्नेश ने कहा कि वह उनके यहां नहीं जा सकता है तो पत्थरों से हमला कर उसे बेहद निर्दयता से मार दिया गया। इस तरह की बेहद दर्दनाक घटनाओं से पता चलता है कि आज भी सबसे निर्धन परिवारों पर सामंतशाही कितना जोर-जुल्म करती है। गर्मी का प्रकोप बढ़ जाने पर जब मजदूर मिलने में कठिनाई होने लगती है जो मजदूर प्राप्त करने के लिए इस तरह की जोर-जबरदस्ती और दबाव भी बढ़ सकते हैं।
जलवायु बदलाव और बढ़ते ताप पर दुनिया भर में विमर्श तेज हो रहा है। पर इस विमर्श में न्याय और विषमता के महत्त्वपूर्ण मुद्दों को समुचित स्थान नहीं मिल रहा है। अब समय आ गया है कि इन मुद्दों में समता और न्याय का समुचित समावेश हो। विशेषकर गर्मी के प्रकोप के संदर्भ में देखें तो स्पष्ट नीति बननी चाहिए कि जो मजदूर और मेहनतकश गर्मी के प्रकोप से सबसे अधिक संकटग्रस्त हैं और उनकी विशेष सहायता के लिए असरदार कदम उठाए जाएं और उन्हें कार्यस्थल पर गर्मी से बचाव की जरूरी सुविधाएं उपलब हों। केवल निर्देश जारी करना भर पर्याप्त नहीं है। कई बार सरकारी निर्देश जारी हो जाते हैं पर जमीनी स्तर पर उनका असर नजर नहीं आता। यह बहुत से लोगों के जीवन का सवाल है और इसलिए इस बारे में तो असरदार कार्यवाही होनी ही चाहिए।
शहरी संदर्भ में देखें तो बेघर लोगों की सहायता के लिए अधिक प्रयास जरूरी हैं। पहले बेघरों की समस्याओं को मुख्य रूप से अधिक सर्दी के दिनों के संदर्भ में समझा गया और उनके आश्रय के लिए विश्व अभियान भी सर्दी के दिनों में ही चलते रहे पर जिस तरह की भीषण गर्मी का प्रकोप अब देखा जा रहा है, तो बेघर लोगों के लिए या गांव से कुछ समय के लिए शहर आए लोगों के लिए गर्मी के दिनों में भी रात हो या दोपहर, आश्रय स्थलों की जरूरत है। देश के बड़े भाग में अधिक सर्दी तो अब चंद सप्ताहों तक सिमट कर रह गई है, जबकि अधिक गर्मी का प्रकोप वर्ष के अधिकांश समय में छाया रहता है। बदलती स्थितियों के अनुसार ही सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों में भी बदलाव होने चाहिए और शहरी क्षेत्र हो या ग्रामीण, अब यह स्पष्ट हो रहा है कि निर्धन वर्ग और मेहनतकश वर्ग की गर्मी से प्रकोप से रक्षा के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता बढ़ती जा रही है।