भारत में एक समय वह भी था, जब लोग कर्मकाण्ड को ही हिन्दू धर्म का पर्याय मानने लगे थे। वे धर्म के सही अर्थ से दूर हट गये थे। इसका लाभ उठाकर मिशनरी संस्थाएँ हिन्दुओं के धर्मान्तरण में सक्रिय हो गयीं। भारत पर अनाधिकृत कब्जा किये अंग्रेज उन्हें पूरा सहयोग दे रहे थे।
यह देखकर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 10 अप्रैल, 1875 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, नव संवत्सर) के शुभ अवसर पर मुम्बई में ‘आर्य समाज’ की स्थापना की। आर्य समाज ने धर्मान्तरण की गति को रोककर परावर्तन की लहर चलायी। इसके साथ उसने आजादी के लिए जो काम किया, वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा है।
स्वामी दयानन्द का जन्म 12 फरवरी, 1824 को ग्राम टंकारा, काठियावाड़ (गुजरात) में हुआ था। उनके पिता श्री अम्बाशंकर की भगवान भोलेनाथ में बहुत आस्था थी। माता अमृताबाई भी धर्मप्रेमी विदुषी महिला थीं।
दयानन्द जी का बचपन का नाम मूलशंकर था। 14 वर्ष की अवस्था में घटित एक घटना ने उनका जीवन बदल दिया। महाशिवरात्रि के पर्व पर सभी परिवारजन व्रत, उपवास, पूजा और रात्रि जागरण में लगे थे; पर रात के अन्तिम पहर में सब उनींदे हो गये। इसी समय मूलशंकर ने देखा कि एक चूहा भगवान शंकर की पिण्डी पर खेलते हुए प्रसाद खा रहा है।
मूलशंकर के मन पर इस घटना से बड़ी चोट लगी। उसे लगा कि यह कैसा भगवान है, जो अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता ? उन्होंने अपने पिता तथा अन्य परिचितों से इस बारे में पूछा; पर कोई उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर सका। उन्होंने संकल्प किया कि वे असली शिव की खोज कर उसी की पूजा करेंगे। वे घर छोड़कर इस खोज में लग गये।
नर्मदा के तट पर स्वामी पूर्णानन्द से संन्यास की दीक्षा लेकर वे दयानन्द सरस्वती बन गये। कई स्थानों पर भटकने के बाद मथुरा में उनकी भेंट प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द जी से हुई। उन्होंने दयानन्द जी के सब प्रश्नों के समाधानकारक उत्तर दिये। इस प्रकार लम्बी खोज के बाद उन्हें सच्चे गुरु की प्राप्ति हुई।
स्वामी विरजानन्द के पास रहकर उन्होंने वेदों का गहन अध्ययन और फिर उनका भाष्य किया। गुरुजी ने गुरुदक्षिणा के रूप में उनसे यह वचन लिया कि वे वेदों का ज्ञान देश भर में फैलायेंगे। दयानन्द जी पूरी शक्ति से इसमें लग गये। प्रारम्भ में वे गुजराती और संस्कृत में प्रवचन देते थे; पर फिर उन्हें लगा कि भारत भर में अपनी बात फैलाने के लिए हिन्दी अपनानी होगी। उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भी हिन्दी में ही लिखा।
‘आर्य समाज’ के माध्यम से उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त पाखण्ड और अन्धविश्वासों का विरोध किया। इस बारे में जागरूकता लाने के लिए उन्होंने देश भर का भ्रमण किया। अनेक विद्वानों से उनका शास्त्रार्थ हुआ; पर उनके तर्कों के आगे कोई टिक नहीं पाता था। इससे ‘आर्य समाज’ विख्यात हो गया। स्वामी जी ने बालिका हत्या, बाल विवाह, छुआछूत जैसी कुरीतियों का प्रबल विरोध किया। वे नारी शिक्षा और विधवा विवाह के भी समर्थक थे।
धीरे-धीरे आर्य समाज का विस्तार भारत के साथ ही अन्य अनेक देशों में भी हो गया। शिक्षा के क्षेत्र में आर्य समाज द्वारा संचालित डी.ए.वी. विद्यालयों का बड़ा योगदान है। देश एवं हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए जीवन समर्पित करने वाले स्वामी जी को जोधपुर में एक वेश्या के कहने पर जगन्नाथ नामक रसोइये ने दूध में विष दे दिया। इससे 30 अक्तूबर, 1883 (दीपावली) को उनका देहान्त हो गया।