समकालीन दुनिया की एक बड़ी त्रासदी यह है कि पिछले कुछ दशकों में अफ्रीका महाद्वीप में लाखों लोगों की भूख, अल्प पोषण से मृत्यु हुई है।

पर्यावरण और विकास पर विश्व आयोग (ब्रुंडटलैंड आयोग) ने अनुमान लगाया था कि 1984-87 के बीच अढ़ाई वर्ष में अफ्रीका में इस कारण लगभग दस लाख लोगों की मौत हुई। विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुमान के अनुसार 1984-92 के दौरान अफ्रीका में भूख के कारण बीस से तीस लाख मौतें हुई। 1984-85 के दौरान केवल इथियोपिया में 3 लाख मौतें अकाल के कारण हुई और मोजाम्बीक में एक लाख मौतें इस कारण हुई। 2011 में सोमालिया में भूख और अकाल से 2 लाख 60 हजार लोगों की मृत्यु हुई।

कई महीनों से भीषण भूख और कुपोषण से पैदा होने वाली कमजोरी, निरंतर राहत का इंतजार, इस सबके बीच भी जगह-जगह हिंसा का तांडव और राहत की उम्मीद टूटना, फिर इस सबके बाद परिवार के एक या अधिक सदस्यों का बिछुड़ना यह स्थिति बेहद दर्दनाक है और यह स्थिति मनुष्य की इतनी तरक्की, प्रकृति पर उसकी विजय और विज्ञान की आश्चर्यजनक उपलब्धियों के बावजूद हमारे सामने है। सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि दुनिया विकास के रास्ते पर आखिर कहां तक पहुंच सकी है, और कहां जा रही है। इस स्थिति का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि इस बड़ी मानवीय त्रासदी के प्रति विश्व में काफी हद तक संवेदनहीनता बनी हुई है। व्यापक स्तर पर तो यही देखा जा रहा है कि दुनिया के सुख-समृद्धि के इलाकों में भोग-विलास की संस्कृति अफ्रीका के इस संकट से लगभग पूरी तरह बेखबर होकर पहले से भी और आगे बढ़ती जा रही है।

अफ्रीका के एक बड़े क्षेत्र की यह स्थिति कैसे हुई? इसकी शुरुआत तो बहुत पहले ही हो गई थी जब गुलाम व्यापार के अंतर्गत अफ्रीका के बहुत से युवकों को बाहर के देशों में बेचा गया। इस कारण कृषि कार्य के लिए उपलब्ध श्रम-शक्ति में कमी आई और उस पर समुचित ध्यान न दिया जा सका। औपनिवेशिक काल में किसानों और पशुपालकों पर तरह-तरह के कर लगाए गए। इसके लिए उन्हें भूमि की क्षमता से अधिक खेती करनी पड़ी या चरागाहों का अत्यधिक दोहन करना पड़ा। किसानों पर तरह-तरह से दबाव डाला गया कि वे अपनी खाद्य फसलों के स्थान पर उन व्यापारिक फसलों का उत्पादन करें जिन्हें विदेशी शासक अपने कच्चे माल के लिए चाहते थे। अफ्रीका की जलवायु, मिट्टी और अन्य प्राकृतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यहां कई शताब्दियों के अनुभव के आधार पर कृषि और पशुपालन के अपने ही तरह के तौर-तरीके विकसित किए गए थे।

औपनिवेशिक शासकों को न तो इनकी समझ थी, न इनकी परवाह थी। उनके सामने तो बस अपने हित थे और इनके अनुकूल वे यहां की कृषि और पशुपालन व्यवस्था पर कोई भी बदलाव थोपने में नहीं हिचकते थे। इससे हो रहे नुकसान को अनेक देशों में आजादी के बाद भी नहीं पहचाना गया। विदेशी निवेश और सहायता के नाम पर आई बड़ी-बड़ी कंपनियों ने मनमाने ढंग से भू-उपयोग और फसल-चक्र में परिवर्तन किए। अफ्रीका के कुछ देशों में कुछ बड़ी खाद्य कंपनियों ने अपने व्यापारिक हितों के प्रसार की अच्छी संभावनाएं देखीं। एक ओर तो उन्हें यहां बहुत बड़े पैमाने पंर खाली जमीन मिल सकती थी जितनी शायद दुनिया के किसी अन्य भाग में नहीं। दूसरे, इस जमीन का उपयोग यूरोप और पश्चिम एशिया के अधिक क्रय शक्ति वाले बाजार के लिए सब्जियां और फल उगाने के लिए किया जा सकता था, क्योंकि अफ्रीका के इन देशों (जैसे सेनेगल) की दूरी पश्चिम एािया और यूरोप, दोनों से अधिक नहीं थी।

ऐसी फसलों का भी उत्पादन आरंभ किया गया जो भूमि के अनुकूल नहीं थीं। बड़े बांधों आदि से कई जगह विस्थापन हुआ। इस तरह अफ्रीका की बहुत सी अच्छी जमीन को इन बड़ी कंपनियों ने घेर लिया। इन देशों की सरकारों का अधिक ध्यान इन निर्यात की फसलों के सफल उत्पादन और इन बड़ी प्लांटेशनों की सही देखरेख की ओर चला गया। देश की बहुत सी जमीन और अन्य संसाधन निर्यात फसलों के उत्पादन में लग गए और स्थानीय खाद्य फसलों की ओर कम ध्यान दिया जाने लगा। वन विनाश भी बहुत हुआ। इस विकास की बहुत सी विसंगतियां बाद में अकाल के समय सामने आई। यह देखा गया कि नई प्लांटेशनों के कारण अनेक घुमंतू पशुपालकों के परंपरागत मार्ग अवरुद्ध हो गए थे। इन नये बाग-बगीचों के आसपास बड़ी संख्या में ऐसे पशुपालकों की मौत के समाचार मिले।

यह भी देखा गया कि एक ओर जब भूख से इन देशों में हजारों लोग मर रहे थे उसी समय हवाई जहाजों को ताजा सब्जियों और फलों से लाद कर यूरोप के देशों में भेजा जा रहा था। अफ्रीका में भूख के बढ़ते संकट के लिए वहां का अपना अभिजात्य वर्ग भी कोई कम जिम्मेदार नहीं है। औपनिवेशिक समय से ही बाहरी शासकों की देखा-देखी उन्होंने शानो-शौकत की तरह-तरह की गैर-जरूरी उपभोक्ता वस्तुओं के आयात की आदत बना ली थी, पर इस आयात के लिए विदेशी मुद्रा कहां से मिलती? इसके लिए किसानों पर निर्यात की दृष्टि से उपयोगी फसलों के लिए जोर डाला गया और खाद्य फसलों के उत्पादन की विशेष उपेक्षा हुई। इस कारण सूखे जैसे संकट का सामना करने के लिए अनाज के पर्याप्त भंडार प्राय: यहां जमा नहीं हो सके। कुछ सरकारों ने जरूर अलग नीति अपनाने का प्रयास किया जैसे जिंबाब्वे में रॉबर्ट मुगाबे की सरकार ने और इन प्रयासों के फलस्वरूप उन्हें खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने में सफलता भी मिली, पर अधिकतर अन्य देशों की स्थिति निराशाजनक ही रही। यदि अफ्रीका के देशों को अपनी निर्यात फसलों के लिए उचित मूल्य मिलता रहता तो गनीमत थी, पर जैसा कि पिछले अनेक वर्षो में देखा गया है कि कुछ खास मौकों को छोड़कर अफ्रीका के देशों से निर्यात होने वाली निर्यात फसलों के मूल्य की स्थिति अच्छी नहीं रही है। विदेशी मुद्रा कमाने के लिए निर्यात फसलों का बढ़-चढ़ कर उत्पादन करने के बावजूद इन देशों की विदेशी मुद्रा की स्थिति निरंतर बिगड़ती ही गई।

विकसित देशों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के कर्ज का बोझ उन पर बढ़ता गया। उनकी निर्यात आय का बड़ा हिस्सा ऋण की वाषिर्क अदायगी में निकल जाने से उन्हें निर्यात फसलों को बढ़ाने के लिए और भी जोर देना पड़ा। ऋणग्रस्तता बढ़ जाने के बाद ऋणदाताओं और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने आर्थिक नीति-संबंधी अपनी नीतियां मनवानी भी आरंभ की जिससे सरकारी खर्च में कमी करनी पड़ी और अनेक जरूरी विकास कायरे और राहत कायरे में भी बाधा पड़ी । इसमें संदेह नहीं कि भुखमरी का संकट बढ़ जाने के बाद अनेक विकसित देशों से खाद्यान्न और अन्य सहायता अफ्रीका में भेजी गई है, पर यहां की स्थिति इतनी बिगड़ी, इसमें भी विकसित देशों के शोषण और अपने आर्थिक हित साधने की नीतियों का कम हाथ नहीं है। अफ्रीका के अनेक देशों में आंतरिक कलह, हिंसा की वारदातों और कुछ जगह तो गृहयुद्ध जैसी स्थिति के कारण भी अकाल की स्थिति अधिक विकट हुई है।

By admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Verified by MonsterInsights