सिर्फ स्मारिका नहीं है तानसेन की ‘स्वरित’
सुभाष अरोड़ा
जीवन में जितनी अयथेष्टा, रिक्तता, खालीपन है,उसको भरना और भरते रहना कलाकार का काम है । यह कथन था महान कला मर्मज्ञ आनंद कुमार स्वामी का। वह ‘भारतीय’ को सनातन प्रवाह के रूप में देखते थे और यह महसूस करते थे कि भारत में कोई चीज पुरानी नहीं होती,कोई चीज नई भी नहीं होती, भारत में वस्तु बार-बार पैदा होती रहती है, पुनः पुनः जायमान होती रहती है। यह जो उषा की तरह पुनः पुनः जायमान होना है वही असली मानवीय संस्कार है। उक्त उद्गार विद्वान विद्यानिवास मिश्र ने राय कृष्ण दास स्मारक व्याख्यान माला में आनंद कुमार स्वामी पर विस्तृत चर्चा करते हुए व्यक्त किए थे। ग्वालियर में विगत 100 वर्ष से निरंतर आयोजित होने वाले तानसेन संगीत समारोह की स्मारिका ‘स्वरित’ को पाकर सहज ही उनकी यह बातें अधिक प्रासंगिक प्रतीत होने लगी ।
‘स्वारित’ के संपादन में डॉक्टर दिनेश पाठक ने पूरी संगीत निष्ठा से अतीत स्मृति प्रबंधन की खूबसूरत मिसाल पेश की है। ‘तानन प्रथम तानसेन’ में उन्होंने तन्ना… मनसुख… त्रिलोचन यानी तानसेन का विस्तार से परिचय कराया है। तानसेन 27 बरस अकबर के दरबार में रहे और ‘कंठाभरणवाणी विलास’ की उपाधि से विभूषित होकर सम्मानित हुए। उनके दुनिया से विदा होने पर बादशाह अकबर ने कहा था “तानसेन की मौत मौसिकी के लिए सदमा है। हजारों हजार साल में शायद ही कोई फन-ए- मौसिकी में उसकी बराबरी कर सकेगा”। अबुल फजल ‘आइने अकबरी’ में तानसेन का परिचय देते हुए लिखते हैं ” मियां तानसेन ग्वालियर निवासी जिसके समान अन्य कोई गायक,भारत में पिछले एक हजार वर्ष से नहीं हुआ”।
स्मारिका में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा 1907 की सरस्वती में प्रकाशित ‘संगीत के स्वर’ आलेख का भी पुनः प्रकाशन किया है। भारतीय संगीत के सूक्ष्म और शास्त्रीय ज्ञान की सराहना करते हुए उन्होंने लिखा था कि यूरोप वालों को मूच्छना और गमक आदि का अब तक ज्ञान नहीं है। काव्य शास्त्र की तरह भारतीय संगीत शास्त्र भी बहुत बढ़ा-चढ़ा है। इसी लेख में उन्होंने प्रमाणिक भारतीय संगीत ग्रंथों का उल्लेख करते हुए संगीत पर विस्तार से प्रकाश डाला है। एक अन्य लेख ‘संगीत का मूलाधार एक है’ में उस्ताद अमजद अली खान भारतीय संगीत के सात स्वरों सा, रे, गा, मा, पा,धा, नी की तुलना पश्चिम के डो,री, मी, फा, ला, टी से करते हुए लिखते हैं कि संगीत पूरी दुनिया को एक सूत्र में पिरोता है।
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर संगीत को कला का ‘विशुद्धतम’ रूप निरूपित करते हुए कहते हैं कि संगीत सौंदर्य को बड़े शुद्ध रूप में प्रकट करता है। गायक के सभी साधन उसके अंतर में विद्यमान होते हैं। स्वरों का उदय उसके जीवन से होता है। उसे बाहरी उपकरणों की पराधीनता नहीं ।
प्रोफेसर मुकुंद लाठ ‘स्वर और शब्द’ में लिखते हैं हमारा संगीत पक्का या ‘शास्त्रीय’ राग संगीत भी अपने आप को गाने में ही पहले देखता है बजाने में बाद में। शास्त्रों में गीत को प्रधान कहा गया है और आज भी सह्रदयों में यही मान्यता रही है। सवाल उठता है कि संगीत में शब्द का स्थान क्या है ? राग- संगीत में यह सवाल उठता ही नहीं। शिकायत रहती है राग-संगीत साहित्य का ध्यान क्यों नहीं रखता। शब्द के सौंदर्य या साहित्य की बात को छोड़िए, राग संगीत के गायक शब्दों के सही उच्चारण की भी परवाह नहीं करते पर थोड़ा सोचें तो शिकायत अजीब लग सकती है। संगीत स्वरों में होता है शब्दों में नहीं तभी राग बजाने में भी उतना ही राग होता है जितना गाने में।
‘वाग्गेयकार तानसेन’ में विनायक नारायण सप्रे कहते हैं की संगीत रत्नाकर तथा रागतरंगिणी पुस्तकों में वाग्गेयकार के जो 28 गुण बताए हैं, उनमें से लगभग सभी तानसेन के संगीत एवं काव्य में विद्यमान थे किंतु एक विलक्षण संगीतज्ञ के रूप में तानसेन की प्रसिद्ध इतनी विस्तृत थी कि उनके व्यक्तित्व के उस दूसरे आयाम के संबंध में चर्चा कम ही हो सकी जबकि एक उत्कृष्ट कवि के तौर पर तानसेन ने विभिन्न राग रागनीयों में असंख्य पदों की रचना की।
प्रोफेसर सुनीरा कासलीवाल व्यास अपने लेख ‘तानसेन और हिंदुस्तानी संगीत ‘ में राग दरबारी, मियां की मल्हार, मियां की तोड़ी, और मियां की सारंग की विस्तृत चर्चा के साथ तानसेन के वंशजों के संगीत के समर्पण का उल्लेख करते हुए लिखती हैं, ” तानसेन के वंशजों की कठिन संगीत साधना, अपनी परंपरा को बनाए रखने की जी तोड़ ललक और रागों की ओर बंदिशों की शुद्धता के प्रति उनकी अपार निष्ठा का ही यह परिणाम है कि तानसेन के देहावसान के लगभग 500 वर्ष पश्चात भी उनका संगीत, सृजित विभिन्न राग और उनके द्वारा रचित बंदिशें आज के विद्यार्थियों को उपलब्ध हैं।
वरिष्ठ ध्रुपद गायक पंडित सुखदेव चतुर्वेदी ने ‘ध्रुपद धमार गायन शैली के विकास में तानसेन के अभूतपूर्व योगदान’ पर सारगर्भित प्रकाश डाला है। लेख में तानसेन की विलक्षण प्रतिभा का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि वह दस वर्ष की आयु में आवाज की हूबहू नकल करने और पशु पक्षियों की आवाज निकालने में माहिर थे। शेर जैसी दहाड़ मार कर सबको डरा देने वाले तानसेन की प्रतिभा को पहचान कर ध्रुपद शिरोमणि स्वामी हरिदास तानसेन को अपने साथ वृंदावन ले गए और बारह वर्ष तक संगीत साधना द्वारा उन्हें राग सिद्ध करवाए।
स्मारिका में वरिष्ठ पत्रकार और सम्पादक चंद्रवेश पांडे द्वारा तानसेन अलंकरण से विभूषित प्रख्यात तबला नवाज पंडित स्वप्न चौधरी से लंबी बातचीत भी शामिल है। पंडित स्वप्न चौधरी बाबा तानसेन के नाम से मिले सम्मान को ईश्वर के प्रसाद तुल्य निरूपित करते हैं। साथ ही स्मारिका में शामिल है ‘महाराजा मानसिंह तोमर का भारतीय संगीत में योगदान’ लेखक हैं पंडित शंकर नारायण राव पंडित। प्रयाग शुक्ल का ‘कलाओं में रितु प्रसंग’ साथ ही ‘ मानकोतूहल के दस अध्यायों का विश्लेषण प्रोफेसर रंजना टोणपे द्वारा। डॉक्टर नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के सौजन्य से आवरण पृष्ठ और स्मारिका के भीतर भी लघु चित्र शैली की राग माला पेंटिंग्स का अपना ही विशिष्ट आकर्षण है। साथ ही उनका लेख ‘लघु चित्रों में राग माला के अंकन’ स्वरों को रंग और रेखाओं की रहस्य भरी दुनिया में सजीव होने की प्रक्रिया को समझता है।
‘उन्हें याद सब है जरा जरा… ‘ में प्रख्यात बांसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया उन दिनों की याद करते हैं जब ग्वालियर वायु मार्ग से नहीं जुड़ा था और संगीतज्ञ रेलगाड़ी से किसी तरह ग्वालियर पहुंचते थे। एक बार वह और प्रख्यात गायिका किशोरी अमोनकर मुंबई से रेलगाड़ी द्वारा ग्वालियर पहुंचे तब उन्हें लेने एक खटारा किस्म की गाड़ी आई थी और उसमें बैठ ठहरने वाले हाल नुमा स्थान पर पहुंचे जहां दिग्गज संगीतज्ञ ठहरे थे। बावजूद सब परेशानियों के प्रस्तुति देने के आनंद की अनुभूति अविस्मरणीय रहती। वर्षों तक बड़ी मेहनत कर ऑल इंडिया रेडियो और मध्य प्रदेश शासन ने समारोह को मौजूदा मुकाम तक पहुंचाया है।
93 वर्षीय भरत लाल शर्मा का संस्मरण तथा अन्य श्रोताओं के अनुभव भी गुजरे जमाने की यादों को ताजा कर देते हैं। ‘उन्होंने कहा था…’वर्ग में प्रख्यात संगीतकारों की स्मृतियां और खासकर भारत रत्न लता मंगेशकर का संगीत पुरुष तानसेन को अद्भुत करार देना और ताउम्र उच्च कोटि के स्वरों की प्रतीक्षा करते रहने का जज्बा हमें संगीत की उस ऊंचाई से परिचित कराता है जहां कुछ अद्भुत होने की संभावनाएं सदा बनी रहती हैं। ग्वालियर में भी स्वरों के प्रति ऐसी ही प्यास है जो सदियों से आज तक अनबुझी है जो सदैव तानसेन का स्मरण करती है। जिसके फल स्वरुप ग्वालियर दुनिया में एकमात्र ऐसा स्थल है जहां एक सदी से निरंतर संगीत पुरुष तानसेन की स्मृति में श्रद्धा पर्व (संगीत यज्ञ) निरंतरता पूर्ण जारी है। दुनिया भर के संगीत प्रेमी इस अवसर का लाभ लेने तानसेन समारोह में हाजिरी लगाते हैं। स्मारिका संगीत प्रेमियों, रसिकों, विद्यार्थियों और सुधि पाठकों के लिए ज्ञान का भंडार है। साथ ही शोध छात्रों के लिए संदर्भ ग्रंथ भी।
(लेखक, प्रतिष्ठित मूर्तिकार हैं।)
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