जातिगत जनगणना…यह महज आंकड़ों की लड़ाई नहीं
प्रेम शंकर सिंह
जातिगत जनगणना पर जो बहस चल रही है…वो महज आंकड़ों की लड़ाई नहीं है। ये असल में भारत के सामाजिक ढांचे को समझने और फिर उसे नए सिरे से गढ़ने की एक बड़ी कोशिश है। अब जो लोग इसका समर्थन करते हैं-उनका ये मानना है कि इससे पिछड़े और अति-पिछड़े वर्गों की सच्चाई सामने आएगी। उनकी शिक्षा कैसी है, उनकी आर्थिक स्थिति क्या है, उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व कितना है-ये सब कुछ पहली बार साफ-साफ दिखेगा। और जब तस्वीर साफ होती है, तभी नीति भी ठोस बनती है। सरकार के पास आधार होगा-ताकि जो वंचित हैं, उन्हें समय पर, जरूरत के मुताबिक मदद दी जा सके।
अब जरा पीछे चलते हैं…
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जाति पर सोच हमेशा एक जैसी नहीं रही। जब जनसंघ से निकलकर भाजपा बनी थी-तब उस पर साफ लेबल लगा था: ‘ब्राह्मण-बनियों की पार्टी’। ऊंची जातियों की पार्टी। सत्ता से दूर और जमीन के मिजाज से भी थोड़ी कटी हुई। लेकिन 1985 में पहली बार पार्टी के भीतर गहरी सोच का मंथन शुरू हुआ। एक प्रस्ताव पास किया गया-मंडल आयोग की सिफारिशों का समर्थन करने का। ये पहली बार था जब भाजपा ने माना कि अगर इस देश में राजनीति करनी है, तो ओबीसी और दलित समाज को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मगर तभी देश में एक और लहर उठी-राम मंदिर आंदोलन की। यहां से कमंडल बनाम मंडल की राजनीति शुरू हुई। भाजपा वापस हिंदुत्व के पथ पर लौट आई। जाति का विमर्श पीछे चला गया और आस्था का आंदोलन केंद्र में आ गया।
फिर आया 2014 का दौर
नरेंद्र मोदी की सरकार। और यहां से भाजपा की सोच में असली, ठोस और दूरगामी बदलाव शुरू हुआ। मोदी खुद ओबीसी पृष्ठभूमि से आते हैं।
उन्होंने बहुत जल्दी पहचान लिया कि हिंदू समाज का जो सबसे बड़ा हिस्सा है वो आज भी राजनीतिक प्रतिनिधित्व में पीछे है। इसके बाद जो-जो कदम उठे, वो सिर्फ नीतियां नहीं थीं, वो एक लंबी सामाजिक रणनीति का हिस्सा थीं। 2019 में आर्थिक रूप से पिछड़ी अगड़ी जातियों को 10 प्रतिशत आरक्षण देना, उसी संतुलन की कोशिश थी। अब भाजपा के पास दो आधार थे-एक तरफ ओबीसी को सम्मान और दूसरी तरफ अगड़ों को सुरक्षा। अब जब जातिगत जनगणना की बात आई, तो मोदी ने इसे सिर्फ एक सामाजिक मुद्दा नहीं माना। उन्होंने इसे राष्ट्र-निर्माण के औजार की तरह देखा।
तो अब जो हो रहा है…
वह केवल एक जनगणना नहीं है। यह असल में हिंदू समाज के पुनर्गठन की योजना है। एक दूरदर्शी, ठोस, और सधी हुई रणनीति है। प्रधानमंत्री मोदी का यह फैसला आरक्षण की राजनीति को भी एक नया आधार देगा। अब बहसें भावनाओं पर नहीं, तथ्यों पर होंगी। नीतियां अब जातीय जनसंख्या के अनुपात पर टिकी होंगी। और यही वह जगह है…जहां नरेन्द्र मोदी आज वीपी सिंह से एक कदम आगे जाते हैं। वीपी सिंह ने सामाजिक न्याय की राजनीति शुरू की थी। मोदी उसे अब संस्थागत रूप दे रहे हैं-डेटा से, नीति से, और राष्ट्रवाद की भावना में रहते हुए। 10 साल सत्ता में रहने के बाद समाज सुधारक की भूमिका निभाने की ये कोशिश पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह की मंडल कमीशन की कोशिशों को आगे ले जाने की ठोस पहल है।
प्रमुख सवाल है-क्या भारत अब अपनी सच्चाई को देखना चाहता है?
या उस सच्चाई से आंख चुराकर, फिर उसी पुराने ढांचे में जिएगा? अहम बात यह है कि यह सिर्फ राजनीति नहीं है…। यह विचारधारा, रणनीति और इतिहास की त्रिवेणी है। और अगर यह प्रयोग सफल हुआ तो नरेन्द्र मोदी को हम केवल प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि एक सामाजिक युगांतकारी विचारक के रूप में याद करेंगे।
तो अब सवाल आपके सामने है-क्या जातिगत जनगणना से समाज एक होगा या बंटेगा? क्या यह आंकड़ों की राजनीति है या सामाजिक न्याय की पुनर्परिभाषा? आप क्या सोचते हैं? और अगर ये सोच आपको गहराई तक छूती है-तो इस संवाद को आगे बढ़ाइए। दरअसल हर विकसित समाज थिंकर्स के जरिए आगे बढ़ने में सक्षम होता है। क्योंकि जब तक समाज सोचता नहीं, तब तक समाज बदलता नहीं।
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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