भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ठोस सुधार को लेकर चल रहे टाल-मटोल पर सख्त तेवर दिखाए हैं। कहा है कि इससे स्थाई सदस्यता में विस्तार और एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कम प्रतिनिधित्व पर ध्यान देने जैसे महत्त्वपूर्ण तत्व अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किए जा सकते हैं। भारत ने कहा है कि 1965 के बाद से हमारे पास दिखाने के लिए कोई परिणाम नहीं है।

1965 में परिषद की सदस्यता छह निर्वाचित सदस्यों से बढ़ा कर दस कर दी गई थी। भारत ने जोर दिया कि अंतर सरकारी वार्ता में वास्तविक ठोस प्रगति चाहता है। भारत ने यथास्थिति का पक्ष लेने वाले देशों द्वारा आम सहमति का तर्क दिए जाने पर चिंता भी जताई।

ग्लोबल साउथ के सदस्य के रूप में भारत का मानना है कि प्रतिनिधित्व न केवल परिषद, बल्कि पूरे संयुक्त राष्ट्र की वैधता और प्रभावशीलता दोनों के लिए अपरिहार्य शर्त है। ग्लोबल साउथ का अर्थ आर्थिक रूप से कम विकसित देशों के लिए लगाया जाता है। सुरक्षा परिषद में पंद्रह सदस्य देश होते हैं, जिनमें से बस पांच स्थाई होते हैं।

इसकी स्थापना अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की भावना से की गई थी। आठ बार अस्थाई सदस्य चुने जाने के बावजूद भारत लंबे अरसे से स्थायी सदस्यता का अब तक प्रबल दावेदार ही है। हालांकि चीन इसका मुखर विरोधी है परंतु भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के साथ ही सबसे ज्यादा आबादी वाला देश भी है।

परमाणु हथियार संपन्न देश-दुनिया की पांचवीं अर्थव्यस्था होने के चलते मौजूदा स्थायी सदस्यों के मुकाबले तनिक पीछे नहीं रहा। इसलिए उसकी नाराजगी की अनदेखी नहीं की जा सकती। भारत के पक्ष में जाने वाली बात है कि ब्रिटेन हमारे साथ अफ्रीका, जर्मनी, जापान और ब्राजील को भी स्थायी प्रतिनिधित्व देने का पक्षधर है।

हालांकि दुनिया के तमाम देश सदस्यता पाने का आवेदन करते रहते हैं। मगर भारत ने विश्व पटल पर जिस तरह अपनी स्थिति लगातार मजबूत की है, उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि उसके तेवर बिला-वजह नहीं हैं। वह जिस ठोस प्रगति की बात उठा रहा है, उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।

संयुक्त राष्ट्र की वैधता और उसके प्रभाव को चुनौती देते हुए भारत ने न केवल दृढ़तापूर्वक अपनी दावेदारी को दोहराया है, बल्कि दुनिया के समक्ष अपनी अहमियत जताने में भी हिचक नहीं रहा।

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