अब अधिकांश विख्यात इतिहासकार स्वयं स्वीकार करते हैं कि जिस तरह से इतिहास सामान्य तौर पर पढ़ाया गया या चर्चित हुआ, उसमें गंभीर समस्याएं हैं और उससे न तो इतिहास की सही समझ बनती है, और न ही हम इतिहास से जरूरी सबक ले सकते हैं।
इतिहास को प्राय: मुख्य राजाओं और साम्राज्यों के क्रिया-कलाप, युद्धों, उदय और अस्त आदि के रूप में प्रस्तुत किया गया, जबकि राजमहलों और युद्धस्थल से हटकर सामान्य जनजीवन पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। इस कमी को दूर करने का प्रयास पिछले कुछ वर्षो में किया गया और सामान्य जन-जीवन के बारे में कई इतिहासकारों ने कुछ महत्त्वपूर्ण काम किया। किसानों, मजदूरों, मेहनतकश वर्ग की स्थिति के बारे में, उनके संघर्ष के बारे में कुछ उल्लेखनीय कार्य हुआ। आर्थिक-सामाजिक विषमता के बारे में कुछ बेहतर जानकारी मिलने लगी। इसके बावजूद इतिहास के विद्यार्थियों को सामान्यत: जो पढ़ाया जाता है, उस पर अभी इस बदलाव का समुचित असर होता नहीं नजर आया है।
इतिहास के कई अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष भी हैं जिन पर इस समय तक समुचित ध्यान नहीं दिया जा सका है। सब तरह के अध्ययन-अनुसंधान का अंतिम उद्देश्य तो किसी न किसी रूप में बेहतर समाज, सद्भावनापूर्ण समाज और अधिक सुरक्षित समाज बनाना है। यदि इस दृष्टि से देखें तो किसी भी क्षेत्र के इतिहास के कुछ महत्त्वपूर्ण विषय यह बनाते हैं-
-इतिहास के किस दौर में आपसी भाईचारे, सुलह-समझौते और परस्पर सहयोग का माहौल अधिक मजबूत हुआ और किन कारणों से हुआ?
-किस दौर में मनुष्य ने केवल समृद्धि नहीं अपितु संतोष को भी समुचित महत्त्व दिया?
-किस दौर में न्याय के जीवन-मूल्य के अधिक महत्त्व मिला?
किस दौर में ऊंचे आदशरे से प्रेरित होकर लोग व्यापक जन-हित के मुद्दों के लिए अधिक आगे आए?
-किस दौर में लोग पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं की रक्षा के प्रति अधिक संवेदनशील हुए?
-किस दौर में मनुष्य ने भावी पीढ़ियों का, भविष्य का अधिक ध्यान रखा?
यह बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है क्योंकि सबसे बड़ा सरोकार तो धरती पर दुख-दर्द कम करना ही है। जब समाज में करुणा, भाईचारे, सहयोग और न्याय के जीवन-मूल्य मजबूत होंगे तभी दुख-दर्द भी कम होगा। यदि हम इतिहास के अध्ययन से यह समझ सकें कि समाज में किस दौर में ये जीवन-मूल्य बहुत मजबूत हुए और इस तरह का माहौल बनाने में किन कारणों, प्रेरकों, उत्प्रेरकों की मुख्य भूमिका रही तो यह इतिहास का सर्वाधिक मूल्यवान योगदान होगा। धरती पर वैसे तो लाखों तरह के जीव हैं पर केवल मनुष्य में ही यह अद्वितीय क्षमता है कि सब जीवों और प्रकृति की रक्षा के बारे में नियोजित ढंग से सोच सके और अनुकूल कदम उठा सके। इतिहास के किस दौर में मनुष्य इस भूमिका के सबसे नजदीक आ सका और इसके लिए उसे प्रेरणा कहां से प्राप्त हुई, यह इतिहास का सबसे महत्त्वपूर्ण विषय हो सकता है।
यदि इतिहास को उसकी पूरी व्यापकता में समझना है, तो इसका अध्ययन इन चार संबंधों के संदर्भ में किया जा सकता है-1) मनुष्यों के आपसी संबंध, 2) मनुष्य और प्रकृति के संबंध, 3) मनुष्य और अन्य जीवन रूपों के संबंध, तथा 4) वर्तमान पीढ़ी के भावी पीढ़ियों से संबंध। इतिहास हमें समझने में मदद कर सकता है कि कब इन संबंधों पर आधिपत्य हावी रहा और इससे कितनी क्षति हुई। कब इन संबंधों का आधार सहयोग बना और इसमें किसकी मदद मिली? इससे हमें भविष्य के लिए क्या प्रेरणा मिलती है? यह सवाल उठाना भी बहुत जरूरी है कि मनुष्य की प्रगति के नाम पर जो कुछ हुआ, उसका अन्य जीव-जंतुओं पर क्या असर पड़ा?
निश्चय ही धरती केवल मनुष्यों की नहीं है अपितु उन सभी लाखों अन्य जीव-जंतुओं की भी है जो धरती पर रहते हैं। यदि हम मनुष्य के साथ सभी लाखों अन्य जीव-जंतुओं को जोड़ लें और पूछें कि पिछले लगभग दस हजार वर्षो के दौरान इन सभी जीवों का दुख-दर्द कम हुआ या बढ़ा तो निश्चय ही उत्तर यह होगा कि दुख-दर्द बढ़ा है। कुछ लोग प्रगति के आकलन को ऐसा विस्तार न देकर केवल मनुष्य की अपनी स्थिति के आधार पर आकलन करते हैं। इसमें भी वे केवल मनुष्य की सुख-सुविधाओं, आय-समृद्धि, आदि की ही चर्चा करते हैं। पर जब तक इसमें संतोष, न्याय, समता आदि बेहद जरूरी जीवन-मल्यों को नहीं जोड़ा जाता तब तक कोई केवल मनुष्य-केंद्रित आकलन भी पूरा नहीं हो सकता है। आज से लगभग छह सौ वर्ष पहले तक अमेरिकी महाद्वीप में वहां के मूल निवासियों की सदियों पुरानी विकसित सभ्यता थी जिसके कुछ बहुत प्रेरणादायक जीवन-मूल्य चर्चित रहे हैं।
इस महाद्वीप के मूल निवासियों की जनसंख्या उस समय के यूरोप की जनसंख्या से भी कहीं अधिक थी पर यहां कोलंबस के बाद जो यूरोपीय आक्रामक प्रवृत्ति के लोग आए उनके प्रवेश की एक शताब्दी के भीतर ही यहां के मूल निवासियों में से मात्र 10 प्रतिशत बचे। कुछ मार दिए गए, कुछ खदेड़ दिए गए तो कुछ यूरोप से आने वाले नई बीमारियों के शिकार हो गए। अत: पिछले लगभग चार सौ वर्षो का अमेरिका का जो इतिहस है, उसमें मूल निवासियों का जिक्र बहुत कम है, और यह मुख्य रूप से बाहर से आए लोगों का इतिहास बन जाता है। काफी हद तक यही स्थिति ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप की भी है, जहां आक्रामक यूरोपवासियों के आने के बाद वहां के आदिवासियों का और भी कम प्रतिशत बचा है।
उसके बाद का इतिहास लगभग पूरी तरह बाहरी लोगों का इतिहास हो गया। आज ये क्षेत्र आधुनिक विकास की चकाचौंध के प्रतीक बने हुए हैं पर यदि कोई पूछे कि यहां के मूल निवासियों का इतिहास क्या है तो यही कहना पड़ेगा कि उनका या तो बड़े पैमाने पर संहार कर दिया गया और शेष को इतना जोर-जुल्म सहना पड़ा कि यहां के मूल-निवासी लगभग पूरी तरह लुप्त हो गए, बस थोड़े से ही इधर-उधर बचे हैं और वे भी बुरी हालत में। पर कुछ लोग कहते हैं कि जिस तरह मनुष्य की जनसंख्या बढ़ी है, उस तरह अपने लिए जीवन की जरूरतें जुटा पाना ही मनुष्य की बहुत बड़ी उपलव्धि है पर कड़वी सच्चाई यह है कि बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी में तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों और दावों के बावजूद कोई ऐसा वर्ष याद नहीं आता जब दुनिया के लोगों की जरूरतें संतोषजनक ढंग से पूरी हुई हों।
मनुष्य की प्रगति का आकलन इस आधार पर हो सकता है कि वह दुख-दर्द कम करने के प्रति कितना सचेत रहा। कोई संदेह नहीं कि धरती के सभी जीवों में सबसे अधिक और अद्वितीय क्षमताएं मनुष्य को ही मिली हैं। इसके साथ उसकी यह जिम्मेदारी भी बनती है कि वह इनका उपयोग मनुष्यों सहित सभी जीव-जंतुओं की रक्षा के लिए और उनका दुख-दर्द न्यूनतम करने के लिए करे। इतिहास के अध्ययन का एक बहुत सार्थक तरीका यह है कि विभिन्न क्षेत्रों के विभिन्न दौर में यह पता किया जाए कि इस रक्षा की भूमिका और दुख-दर्द कम करने की भूमिका में मनुष्य कब और कहां अधिक संवेदनशील था, अधिक सफल था? इस तरह की सफलता जब अधिक मिली, तो इसके क्या कारण थे। इसके पीछे किस तरह के प्रेरक थे? इस आधार पर सही प्रगति का मार्गदर्शन प्राप्त हो सकेगा।