संसद में सवाल पूछने के मामले को पैसे और लॉगइन शेयर करने का मामला बना कर कुछ दिन खबरें तो छपवाई जा सकती हैं पर यह मामला नया नहीं है, और ज्यादा नहीं चलेगा। इसमें कुछ होना भी नहीं है।
इंडियन एक्सप्रेस में मेरे सहयोगी रहे ए सूर्यप्रकाश, जो बाद में प्रसार भारती के प्रमुख भी बने, ने पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने का मामला बहुत पहले उठाया था। तब मैंने कालचक्र के अंग्रेजी संस्करण में उस लेख-संसद में सवाल बिकते हैं-को छापा था। यह 1997 का मामला है। ज्यादातर सांसदों के कॉरपोरेट से संबंध होते हैं, और कॉरपोरेट के लॉबिइस्ट भी होते हैं। इसमें वे कुछ गलत नहीं मानते और न इसे रोका जा सकता है। इलेक्टोरल बॉण्ड की पारदर्शिता से बचने का सरकार का यही संकोच है। इसलिए सांसदों का संबंध कॉरपोरेट से रहेगा ही। गहन जांच की जाए तो ऐसे आरोप किसी पर भी लगाए जा सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ भारत में होता है। दुनिया भर के देशों में यह किसी ने किसी तरह होता ही है। ऐसे में महुआ मोइत्रा का मामला बेकार ही बड़ा बनाया जा रहा है, और इसमें सांसदों की नैतिकता का मामला उठेगा और जैसा कि महुआ मोइत्रा ने कहा है कि एथिक्स कमेटी का काम था सांसदों के लिए कोड ऑफ कंडक्ट बनाना। जो बना ही नहीं है। यही हाल संसद में सवाल पूछने या दर्ज अथवा पोस्ट करने के लिए यूजर आईडी, पार्सवड शेयर करने का भी है। महुआ ने कहा है कि ऐसे कोई नियम नहीं हैं, जबकि व्यक्ति विशेष के उपयोग के लिए जारी सरकारी यूजर आईडी और पार्सवड साझा करने पर सवाल उठाए ही जा सकते हैं।
दूसरी ओर, महुआ कह रही हैं कि यह सब आम है। ज्यादातर सासंदों के लिए यह सब काम दूसरे लोग करते हैं। उनके मामले में ओटीपी उनके फोन पर आता है। इसलिए कुछ गलत नहीं है। कुल मिला कर विवाद हो तो रहा है पर मुद्दा इस लायक नहीं है, और इसमें सांसदों का ही नहीं, एथिक्स कमेटी का व्यवहार भी सार्वजनक हो रहा है। यह अलग बात है कि सभी अखबारों में सब कुछ नहीं छप रहा है। लेकिन बहुत कुछ सार्वजनिक हो चुका है, और फायदा कोई नहीं है। महुआ मोइत्रा ने यह भी कहा है कि सांसद दानिश अली की शिकायत पर सांसद रमेश बिधूड़ी को भी बुलाया गया था पर वे राजस्थान चुनाव में व्यस्त हैं। इसलिए उन्हें फिलहाल छोड़ दिया गया है। दूसरी ओर, महुआ ने दुर्गा पूजा के कारण चुनाव क्षेत्र में व्यस्त होने की दलील दी और पांच नवम्बर के बाद की तारीख मांगी थी तो भी उन्हें 2 नवम्बर की तारीख दी गई और विवाद हो गया।
मूल कारण नैतिकता या एथिक्स का ही है। महुआ मोइत्रा के मामले में समिति समय बढ़ाने पर भी एकमत नहीं थी। अब लगभग सब कुछ सार्वजनिक होने और एथिक्स कमेटी में मतभेद तथा उस पर लगे आरोपों के बावजूद एथिक्स कमेटी के अध्यक्ष विनोद सोनकर ने कहा है कि विवाद खड़ा करने वाले कमेटी को काम नहीं करने देना चाहते। वे चाहते हैं कि विवाद हो जिससे कार्य प्रभावित हो। मगर ऐसा नहीं होगा। कमेटी अपना काम करेगी और स्पीकर को जल्द रिपोर्ट सौंपेगी।
आप समझ सकते हैं कि इस मामले में रिपोर्ट की जल्दी क्यों है, और रमेश बिधूड़ी को छूट क्यों है। जाहिर है कि यह मामला पूरी तरह परेशान करने का है, और मीडिया में लीक करके तथा महुआ के आरोपों को जगह नहीं मिलने से यह बाकायदा साबित हो चला है। यह अलग बात है कि भारत की आम महिला निजी तस्वीरें सार्वजनिक किए जाने से ही परेशान हो जाती है, फिर भी महुआ ने सबका मुकाबला किया है, और अपनी बात भी सार्वजनिक तौर पर कहती रही हैं। इसमें चैनल विशेष के लिए इंटरव्यू मांगने वाले से यह कहना शामिल है कि इंटरव्यू इसी शर्त पर दूंगी कि मुझे हीरे का वह नेकलेस दिया जाए जिसकी तस्वीर आप मेरे नाम के साथ चमकाते रहे हैं। यह इंटरव्यू की कीमत है। जाओ, अपने बॉस को शब्दश: कह दो।
बाद में उन्होंने इस चैट को खुद ही सार्वजनिक कर दिया। सामान्य समझ की बात है कि पैसे लेकर सवाल पूछने का आरोप तब तक साबित नहीं होगा जब तक इस बात के लिखित सबूत नहीं होंगे कि पैसे सवाल पूछने के लिए दिए-लिए जा रहे हैं। जाहिर है, ऐसा होना नहीं है। आम तौर पर अगर ऐसा कोई दस्तावेज हो भी तो रित लेने वाले के साथ देने वाला भी फंसेगा और वायदा माफ गवाह बनाए जाने की गारंटी सवाल पूछने के लिए पैसे देते समय तो नहीं ही होगी। इसलिए न लेने वाला और न देने वाला ऐसा दस्तावेज बनाएगा। यही नहीं, सहेली को उपहार देना भी रित नहीं हो सकता और उपहार को भी कोई रित के रूप में दर्ज नहीं करेगा।
वैसे महुआ का कहना है कैश यानी नकद कहां है? कब, कहां, किसने, किसे दिया और क्या सबूत है। स्वेच्छा से आरोपों के समर्थन में जारी किए गए शपथ पत्र में भी नकद देने का जिक्र नहीं है। इसके अलावा, नकद दिया-लिया गया इसे साबित करने का काम देने वाले को करना है, पैसे नहीं मिले हैं, यह साबित करने की जरूरत नहीं है। यह इसलिए भी जरूरी है कि किसी को पैसे देने का आरोप तो कोई भी लगा सकता है कि दिए हैं। पी चिदंबरम के मामले में भी यही हुआ था और तब भी आरोप लगाने वाले को वायदा माफ गवाह बनाया गया था। संजय सिंह के मामले में भी ऐसा ही हुआ है। दस साल में एक ही तरीके से तीन दलों के तीन मुखर विरोधियों को निपटाने का यह तरीका भी विचारणीय है। फिर भी मामला चल रहा है और अखबारों तथा मीडिया में इतनी जगह पा रहा है, तो इसीलिए कि महुआ सरकार के निशाने पर हैं। ऐप्पल का अलर्ट इसी संदर्भ में हो सकता है, और यह कोशिश चल रही हो कि आरोप लगाने के लिए सूचनाएं कौन देता है। अलर्ट में राज्य प्रायोजित खुफियागिरी की बात महत्त्वपूर्ण है, और उसका संबंध पेगासस से लगता है।