श्रीलंका ने परमाणु हथियारों के निषेध पर संधि (TPNW) में शामिल होकर अपने दो परमाणु हथियार संपन्न पड़ोसियों भारत और पाकिस्तान को एक कड़ा संदेश भेजा है। यह बाद द्वीपीय राष्ट्र के निरस्त्रीकरण मंच से जुड़े एक अधिकारी ने दिया।
परमाणु हथियारों को खत्म करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय अभियान (ICAN) की स्थानीय शाखा, फोरम ऑन निरस्त्रीकरण और विकास (FDD) के एक प्रवक्ता ने कहा कि यह कदम न केवल श्रीलंका के लिए बल्कि पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए एक बड़ी उपलब्धि है।
श्रीलंका में एफडीडी के समन्वयक विद्या अभयगुणवर्धने ने समझौते का स्वागत करते हुए कहा, “श्रीलंका दो परमाणु हथियार संपन्न देशों भारत और पाकिस्तान से घिरा है। टीपीएनडब्ल्यू में श्रीलंका का शामिल होना दोनों परमाणु हथियार संपन्न देशों भारत और पाकिस्तान को एक कड़ा संदेश देेेता है।” यह अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के पक्ष में परमाणु निरस्त्रीकरण की दिशा में “श्रीलंका की दीर्घकालिक प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है।
श्रीलंका ने व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT) के पहले हस्ताक्षरकर्ताओं में से एक था।
श्रीलंका के टीपीएनडब्ल्यू समूह में शामिल होने के साथ ही इस संधि पर हस्ताक्षर करने वालों की संख्या 93 हो गई।
श्रीलंका के विदेश मंत्री अली साबरी वार्षिक संयुक्त राष्ट्र नेता सप्ताह के दौरान न्यूयॉर्क में एक समारोह में ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए बहामास के विदेश मंत्री के साथ शामिल हुए।
गौरतलब है कि 2021 से लागू, टीपीएनडब्ल्यू व्यापक तरीके से परमाणु हथियारों को गैरकानूनी घोषित करने और उनके उन्मूलन व उनके उपयोग और परीक्षण के पीड़ितों की सहायता के लिए एक रूपरेखा स्थापित करने वाला पहला बहुपक्षीय समझौता है।
ज्ञात हो, संयुक्त राष्ट्र की नाभिकीय अस्त्र निषेध संधि (TPNW) शुक्रवार 22 जनवरी से लागू हई थी। संधि का उद्देश्य परमाणु अस्त्रों के विकास, उत्पादन, परीक्षण, आधिपत्य और प्रयोग पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना था। 2017 में दुनिया के दो-तिहाई देशों ने इस के पक्ष में मतदान किया था, लेकिन परमाणु शक्तियों के रूप में जाने जाने वाले सभी देश और उनका संरक्षण पाने वाले कई देश संधि का हिस्सा नहीं बने हैं।
संधि देशों को दूसरे देशों में अपने अस्त्र रखने पर भी प्रतिबंध लगाती है। बेल्जियम, जर्मनी, इटली, नीदरलैंड्स और तुर्की जैसे राष्ट्रों में अमेरिका के परमाणु वॉरहेड मौजूद हैं। संधि के लागू होने का स्वागत करते हुए, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने कहा, “परमाणु अस्त्रों से खतरा बढ़ रहा है और उनके संभावित इस्तेमाल से जो अनर्थकारी मानवीय और पर्यावरण-संबंधी परिणाम होंगे उन्हें रोकने के लिए इन अस्त्रों को तुरंत ही नष्ट कर दिया जाना चाहिए।”
कुछ ऐसे ही विचार 2017 का नोबेल शांति पुरस्कार जीतने वाले परमाणु अस्त्रों को नष्ट करने के अंतर्राष्ट्रीय अभियान (आईसीएएन) ने भी व्यक्त किए। आईसीएएन को नोबेल संधि के लिए समर्थन जुटाने और परमाणु युद्ध की क्रूरता की तरफ दुनिया का ध्यान दिलाने के लिए दिया गया था। लेकिन इस संधि से निशस्त्रीकरण तब तक नहीं होगा जब तक परमाणु शस्त्र रखने वाले देश और नाटो इसका विरोध करते रहेंगे।
संधि को शुरू में 122 देशों ने समर्थन दिया था, लेकिन उनमें से सिर्फ 51 देशों ने उसके आधार पर राष्ट्रीय कानून पास किए हैं। इनमें से अधिकतर विकासशील देश हैं। संधि के लागू होने के थोड़ी ही देर पहले नाटो के सदस्य देश जर्मनी ने चेतावनी दी थी कि संधि में “निशस्त्रीकरण पर हो रही बातचीत को और मुश्किल बनाने के क्षमता है।” जापान ने भी संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। अक्टूबर तक 50 देशों ने संधि को मंजूरी दे दी थी।
परमाणु-विरोधी कार्यकर्ताओं का मानना है कि बड़ी शक्तियों के विरोध के बावजूद संधि सिर्फ सांकेतिक नहीं रहेगी। उन्हें उम्मीद है कि इससे परमाणु कार्यक्रमों पर धब्बा लगेगा और यथास्थिति की मानसिकता को चुनौती मिलेगी। विश्व में परमाणु हथियारों वाले कुल मिला कर नौ देश हैं, जिनमें अमेरिका और रूस के पास इस तरह के 90 प्रतिशत हथियार हैं। बाकी देशों में चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, भारत, पाकिस्तान, इस्राएल और उत्तर कोरिया शामिल हैं। इनमें से अधिकतर देशों का कहना है कि उनके अस्त्रों का उद्देश्य सिर्फ बचाव है और वो इसके पहले कि परमाणु प्रसार संधि के प्रति प्रतिबद्ध हैं।