क्या 2024 के आम चुनावों में मोदी विरोधी मुहिम की अगुआई नीतीश कुमार को मिलने में पेच फंसने लगा है? मोदी के खिलाफ विपक्षी गोलबंदी की अगुआई को लेकर क्या गतिरोध पैदा हो गए हैं? क्या कांग्रेस विपक्षी गोलबंदी में खुद की अगुआई का संदेश देने लगी है? ऐसे कई सवालों की वजह बना है 12 जून को पटना में होने वाली विपक्षी बैठक का टल जाना। जिस तरह नीतीश कुमार और उनके डिप्टी तेजस्वी इस रैली को लेकर उत्साहित थे, उससे लगता यही था कि इस रैली के बाद विपक्ष मौजूदा केंद्रीय सत्ता के खिलाफ गोलबंद होगा, जिस तरह 49 साल पहले पटना में ही हुई रैली के बाद तत्कालीन इंदिरा सरकार के खिलाफ मुहिम शुरू हुई थी।
यह भी अनुमान लगाया जा रहा था कि इसके बाद अपने धवल राजनीतिक दामन के चलते नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विरोधी मुहिम के स्वाभाविक नेता के तौर पर उभरेंगे। लेकिन बैठक का टलना बताता है कि विपक्षी खेमे में सब कुछ वैसे नहीं चल रहा है, जैसा नीतीश के उत्साही समर्थक सोच रहे थे।
दरअसल कांग्रेस इस बैठक से किनारा करने लगी थी। पहले की व्यस्तता के बहाने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था, वहीं कांग्रेस के गैर संवैधानिक प्रमुख राहुल गांधी के बारे में पता ही है कि अपनी अमेरिका यात्रा के चलते बैठक में वे शामिल नहीं हो पाएंगे। इस बीच तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन भी इस बैठक में शामिल न होने के लिए अपनी किसी व्यस्तता का बहाना बना चुके हैं। ऐसे में बैठक का टलना ही था।
नरेंद्र मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार ने कुछ वैसे ही शिखा बांध ली है,जैसे उनके ही मगध के प्राचीन कालीन राजनीतिज्ञ चाणक्य ने तत्कालीन मगध सम्राट नंद के खिलाफ बांध ली थी। कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के पहले तक ऐसा लग रहा था कि मोदी के खिलाफ आक्रामक अभियान में नीतीश की अगुआई को कुछ किंतु-परंतु के बाद विपक्षी खेमा स्वीकार कर लेगा।
लेकिन 13 मई को आए कर्नाटक विधानसभा चुनाव नतीजों ने स्थितियां बदल दी हैं। हार-दर-हार हलकान रही कांग्रेस को मिली बड़ी जीत ने उसकी सोच को बदल दिया है। इसमें दो राय नहीं कि अब भी भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस ही है, लेकिन अतीत की हारों से वह मोदी विरोधी गोलबंदी की अगुआई से हिचक रही थी। लेकिन कर्नाटक ने उसके खोए हुए आत्मविश्वास को वापस लौटा दिया है। ऐसे में भला वह क्यों स्वीकार करने लगी कि किसी छोटे से दल का नेता उसकी अगुआई करे?
ऐसा नहीं कि कांग्रेस पहले नहीं चाहती थी कि विपक्ष का नेतृत्व वही करे। उसकी इस मंशा को ममता बनर्जी भांप रही थीं। वैसे भी ममता पूर्व कांग्रेसी हैं और वे कांग्रेस के मानस को ठीक से समझती हैं। इसीलिए उन्होंने ही नीतीश कुमार को पटना में बैठक कराने का सुझाव दिया था। बहाना बना था 1974 का बिहार आंदोलन, तब बिहार से ही इंदिरा विरोधी रणभेरी फूंकी गई थी। ममता को लगता था कि पटना की बैठक के बाद नीतीश की अगुआई पर परोक्ष मुहर लग जाएगी और इस बहाने कांग्रेस पर दबाव भी बनेगा कि जिन राज्यों में स्थानीय दल ताकतवर हैं, वहां कांग्रेस उनकी मदद करे।
ममता को लगता था कि अगर कांग्रेस अपने हाथ में नेतृत्व रखेगी तो मोदी विरोधी चुनावी संग्राम में वह ताकतवर क्षेत्रीय दलों के राज्यों में भी अपने ढंग से गठबंधन थोपने की कोशिश करेगी। इससे स्थानीय दलों के प्रदर्शन पर असर पड़ सकता है। लगता है कि कांग्रेस ममता की इस रणनीति को भी भांप गई और उसने पटना बैठक में शामिल न होने के लिए बहानों की फेहरिस्त पेश कर दी।
इसलिए नीतीश का त्यागी दांव भी काम नहीं आ रहा है। दो महीने पहले नीतीश के सिपहसालार राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन ने अपनी अध्यक्षता में जनता दल यू की कार्यकारिणी का गठन किया था, लेकिन तब पार्टी के बड़े नेताओं में शुमार केसी त्यागी को कोई जगह नहीं मिली थी। ऐसा नहीं हो सकता कि त्यागी की रूखसती बिना नीतीश की मर्जी के हुई होगी। नीतीश भी जनता दल यू के वैसे ही आलाकमान हैं जैसे वंशवादी दलों का आलाकमान होता है। जनता दल यू में भी अध्यक्ष की हैसियत नीतीश के सामने कुछ भी नहीं है। लेकिन मोदी विरोधी अभियान छेड़ने के बाद उन्हीं केसी त्यागी की उपयोगिता नीतीश कुमार को समझ आने लगी। नीतीश की उम्मीद है कि विपक्षी लामबंदी में केसी त्यागी के राजनीतिक रिश्ते सहयोगी हो सकते हैं।
नीतीश की कोशिशों से 1987 के विपक्षी अभियानों की याद आना स्वाभाविक है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी बोफोर्स दलाली के आरोपों से जूझ रहे थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में अरूण नेहरू, रामधन, आरिफ मोहम्मद खान और सतपाल मलिक ने कांग्रेस से अलग राह अपना ली थी। तब नीतीश कुमार, शरद यादव के आदमी माने जाते थे और उन दिनों शरद के राजनीतिक बॉस देवीलाल का हरियाणा की सत्ता पर कब्जा था। तब उन्होंने राजीव विरोधी परिवर्तन रथ चला रखा था। उन दिनों आंध्र प्रदेश के नेता नंदमुरि तारक रामाराव ने तेलुगूदेशम पार्टी के बैनर तले यात्रा निकाल रखी थी। 1987 में समूचे विपक्ष को एक होने का मौका इलाहाबाद उपचुनाव से मिला था, जिसमें राजीव के कभी सहयोगी रहे वीपी सिंह कांग्रेस छोड़कर उतरे थे और कांग्रेस के उम्मीदवार और उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री सुनील शास्त्री को हरा दिया था। सुनील शास्त्री बाद में भाजपा में शामिल हो गए थे।
लेकिन इस बार ऐसी एकता होने के आसार तभी दिखने लगे थे, जब बेंगलुरू में सिद्धारमैया सरकार का शपथ ग्रहण हुआ। बीस मई को हुए सिद्धारमैया सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में आम आदमी पार्टी को बुलावा नहीं मिला। जिस ममता बनर्जी को मिला, उन्होंने खुद जाने की बजाय अपनी सांसद काकोली दस्तीदार को भेज दिया था। विपक्षी राजनीति के कद्दावर चेहरे शरद पवार भी नहीं थे। चंद्रशेखर राव को भी निमंत्रण नहीं था। आंध्र के मुख्यमंत्री जगन रेड्डी को कांग्रेस से बुलावा मिलना ही नहीं था। विपक्षी राजनीति के एक और अहम चेहरे नवीन पटनायक भी वहां नहीं पहुंचे। जाहिर है कि विपक्षी एकता का प्रबंध होने के पहले ही हिचकोलों में फंसता नजर आया।
वैसे विपक्ष के दिग्गजों में भी कांग्रेस के साथ दिखने में कर्नाटक चुनावों के बाद हिचक दिख रही है। हिचक की वजह है मुस्लिम वोट बैंक। कर्नाटक में समूचा मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस के साथ ही चला गया। मुस्लिम वोटरों के बारे में मान्यता है कि चाहे वह कोलकाता हो या दिल्ली का या बनारस का, कासरगोड का हो या कहीं और का, वह तकरीबन एक ही तरह से सोचता है। कर्नाटक में जिस तरह कांग्रेस का मुस्लिम वोटरों ने एकमुश्त समर्थन किया है, उससे कई भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दल सशंकित हैं।
अतीत में इस मुस्लिम वोट बैंक पर सिर्फ कांग्रेस का ही असर था। लेकिन राम मंदिर आंदोलन के उभार और सामाजिक न्याय की राजनीति के बढ़ते प्रभाव के दौर में मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस से दरकता हुआ हर उस दल के इर्द-गिर्द इकट्ठा होता चला गया, जिनसे उन्हें भाजपा को हराने की उम्मीद थी। कहीं लालू के साथ, कहीं मुलायम के साथ, कहीं चंद्रशेखर राव के साथ, कहीं ममता बनर्जी के साथ तो कहीं अरविन्द केजरीवाल के साथ मुस्लिम वोट चला गया।
अब कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद मुस्लिम वोटबैंक वाले हर दल को डर है कि कहीं उसका वोटबैंक कांग्रेस के साथ न चला जाए। इसीलिए वे कांग्रेस की अगुआई में नये विपक्षी गठजोड़ के लिए उतावले नजर नहीं आ रहे है। 12 जून की बैठक के टलने का यह भी एक महत्वपूर्ण कारण है।