एनडीए गठन के 25 साल पूरे हो गये। मई 1998 में अटलबिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में एनडीए का गठन हुआ था। एनडीए का सिल्वर जुबली समारोह 18 जुलाई को है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में अभी तक कुल 41 राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल शामिल रहे हैं। राज्यों की परिस्थितियां और क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षा के कारण एनडीए में सहयोगी दल आते-जाते रहे हैं। इस मामले में दो दलों का जिक्र जरूरी है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और नीतीश कुमार का जनता दल यूनाइटेड।
ममता बनर्जी और नीतीश कुमार भाजपा की विचारधारा को अच्छी तरह से जानते थे। लेकिन उन्होंने अपने राजनीतिक लाभ के लिए एनडीए का हिस्सा बनना मंजूर किया था। ममता बनर्जी ने कांग्रेस से और नीतीश कुमार ने जनता दल से बगावत कर नयी पार्टी बनायी थी। राजनीतिक धरातल पर खड़ा होने के लिए इन्हें सहारा चाहिए था। इसलिए ये भाजपा की छत्रछाया में आ गये। ऐसा नहीं था कि इन्हें भाजपा से लगाव था। परिस्थितियों से बाध्य हो कर ये एनडीए में आये थे। जब राज्यों की राजनीति में इनका आधार मजबूत हो गया तो उन्होंने भाजपा का विरोध शुरू कर दिया। पश्चिम बंगाल, बिहार में जब भाजपा मजबूत होने लगी तो ममता बनर्जी और नीतीश कुमार ने महायुद्ध छेड़ दिया। लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि ममता बनर्जी और नीतीश कुमार आज राजनीति की जिस ऊंचाई पर खड़े हैं उसमें भाजपा का भी बड़ा योगदान है।
कहा जाता है कि ममता बनर्जी, राजीव गांधी को अपना राजनीतिक गुरु मानती हैं। उनके कमरे आज भी राजीव गांधी की तस्वीर टंगी है। राजीव गांधी ने ही 1984 के लोकसभा चुनाव में उन्हें जादवपुर से कांग्रेस का टिकट दिया था। तब उनकी उम्र केवल 29 साल थी। युवा ममता बनर्जी ने सीपीएम के दिग्गज नेता सोमनाथ चटर्जी को हरा कर तहलका मचा दिया था। फिर राजीव गांधी ने उन्हें भारतीय युवा कांग्रेस का महसाचिव बनाया था। वे 1989 का लोकसभा चुनाव हार गयीं थीं। 1991 में वे फिर सांसद चुनी गयीं तो नरसिंह राव सरकार में युवा खेल और महिला विकास राज्यमंत्री बनाया गया। लेकिन राजीव गांधी के असामयिक निधन और पश्चिम बंगाल की राजनीतिक परिस्थियों के कारण वे कांग्रेस से दूर जाने लगीं। उन्होंने वामपंथी कार्यकर्ताओं और नेताओं के अन्याय के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
वे चाहती थीं कि पश्चिम बंगाल के कांग्रेसी नेता वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए मजबूती से संघर्ष करें। लेकिन कांग्रेस के बड़े नेता उनका साथ नहीं दे रहे थे। 1992 में पश्चिम बंगाल की एक दिव्यांग लड़की से दुष्कर्म हुआ था। आरोप सीपीएम के कार्यकर्ताओं पर लगा था। तब मतता बनर्जी उस लड़की को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय (रायटर्स बिल्डिंग) पहुंच गयी थीं। उस दिन पुलिस ने ममता बनर्जी के साथ मारपीट और दुर्व्यवहार किया था। कांग्रेस के किसी नेता ने उनका साथ नहीं दिया। तब उन्होंने आरोप लगाया था कि कांग्रेस पश्चिम बंगाल में सीपीएम की कठपुतली है। उसी दिन ममता बनर्जी ने समझ लिया था कि अगर वाममोर्चा सरकार को उखाड़ना है तो उन्हें कांग्रेस से बाहर आना होगा। 1993 में वामपंथी सरकार के खिलाफ एक मार्च निकला था। लेकिन पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चला दीं जिससे 13 लोगों की मौत हो गयी थी। इससे ममता बनर्जी की काग्रेस पर नाराजगी और बढ़ गयी।
कांग्रेस से अलग होकर ममता बनर्जी ने 1 जनवरी 1998 को तृणमूल कांग्रेस बनायी। उन्हें पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के साथ साथ कांग्रेस से भी लड़ना था। ऐसे में किसी मजबूत दल के समर्थन की जरूरत थी। 1999 के लोकसभा में चुनाव में उन्होंने भाजपा के सहयोग से चुनाव लड़ा और 8 सीटें जीतीं। 2 सीटों पर भाजपा भी जीती। वाजपेयी सरकार में वे रेल मंत्री बनी। लेकिन उनका मन स्थिर नहीं था। उनका ध्यान पश्चिम बंगाल की राजनीति पर था। 2001 में विधानसभा चुनाव होना था। जनता के बीच छवि बनाने के लिए ममता बनर्जी और अजीत कुमार पांजा ने 2000 में वाजपेयी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम को मुद्दा बनाया। फिर अचानक ही इस्तीफा वापस ले लिया। दरअसल ममता विधानसभा चुनाव के लिए समय निकालना चाहती थीं। 2001 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने कांग्रेस से गठबंधन कर लिया जब कि वे एनडीए में थी। विधानसभा चुनाव में ममता केवल 60 सीट जीत पायीं। जब राज्य में उनकी सरकार नहीं बनी तो वे फिर वाजपेयी मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए उत्सुक हो गयीं।
ममता बनर्जी ने खुदगर्जी दिखायी थी लेकिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे भुला कर सितम्बर 2003 में उन्हें बिना किसी विभाग का मंत्री बना दिया। तृणमूल के सुदीप बनर्जी को भी केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। चार महीने बाद ममता बनर्जी को कोयला और खान मंत्रलाय की जिम्मेदारी दी गयी। 2004 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने भाजपा से तालमेल किया। लेकिन इस बार दोनों दलों को करारी हार का सामना करना पड़ा। तृणमूल से केवल ममता बनर्जी चुनाव जीत पायी और भाजपा का खाता भी नहीं खुला। 2006 के विघानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने फिर भाजपा के सहयोग से चुनाव लड़ा। इस बार ममता 60 से घट कर 30 सीटों पर गयीं। इसके बाद ममता ने भाजपा से अपनी राहें जुदा कर लीं। सात साल से भाजपा के साथ राजनीति कर रहीं ममता को अचानक यह दल साम्प्रदायिक लगने लगा। ममता बनर्जी ने अपने फायदे के लिए पहले कांग्रेस को छोड़ा फिर भाजपा को।