उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को कहा कि लोगों को कष्ट से बचाने के लिए कष्टकारी कार्यवाहियों को समाप्त करने के वास्ते न्यायिक हस्तक्षेप आवश्यक है तथा न्यायालय ने यह कहते हुए दो व्यक्तियों के विरुद्ध आपराधिक अभियोजन को रद्द कर दिया।

पीठ ने दोनों अपीलकर्ताओं के खिलाफ शुरू किए गए अभियोजन को खारिज कर दिया, जिन पर लोक सेवक को उसके कर्तव्य निर्वहन से रोकने के लिए हमला करने का भी आरोप लगाया गया था।

न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने कहा कि किसी आरोपी को समन करना एक गंभीर मामला है, जो व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा को प्रभावित करता है।

पीठ ने कहा, ‘‘व्यक्तियों को अनावश्यक उत्पीड़न और दुख से बचाने और यह सुनिश्चित करने के लिए कि अनुचित अभियोजन से आपराधिक न्यायालयों में काम का बोझ न बढ़े और योग्य मामलों के लिए जगह बने, कष्टप्रद कार्यवाहियों को समाप्त करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत न्यायिक हस्तक्षेप अत्यंत महत्वपूर्ण है।’’

दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों से संबंधित है। पीठ का यह फैसला इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जुलाई 2015 के आदेश को चुनौती देने वाली अपील पर आया, जिसमें लोक सेवक के सार्वजनिक कार्यों के निर्वहन में कथित रूप से बाधा डालने के लिए कुछ व्यक्तियों के खिलाफ आपराधिक मामला रद्द करने से इनकार कर दिया गया था।

इसमें कहा गया कि अपीलकर्ताओं में से एक ऐसे संगठन में परियोजना समन्वयक था जो उत्तर प्रदेश में मानव तस्करी और बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ लड़ रहा था। शीर्ष अदालत ने कहा कि यह घटना जून 2014 में हुई थी, जब अधिकारियों और अपीलकर्ताओं की एक टीम ने वाराणसी में एक ईंट भट्ठे पर बंधुआ बाल मजदूरों से काम कराए जाने के आरोपों के बाद मौके का निरीक्षण किया था।

अपीलकर्ताओं ने दावा किया कि उन्हें बच्चे और मजदूर मिले थे जिन्हें पुलिस थाने लाया गया था लेकिन ईंट भट्ठा मालिक ने हस्तक्षेप किया और उन्हें ले गया। बाद में पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई जिसमें आरोप लगाया गया कि अपीलकर्ताओं ने अन्य लोगों के साथ मिलकर मजदूरों और बच्चों को जबरन ट्रक में डाल दिया और उन्हें ले गए।

आरोपपत्र दाखिल होने और मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लिए जाने के बाद अपीलकर्ताओं ने आरोपपत्र को रद्द करने की मांग करते हुए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। शीर्ष अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय ने मामले के तथ्यों या अपीलकर्ताओं द्वारा उठाए गए तर्कों पर ध्यान नहीं दिया है।

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