देश की आजादी के शुरुआती दशकों में जनसंचार माध्यमों के खासे अभाव के बाद भी किसानों की लड़ाई लड़ने वाले नेता की पहचान अखिल भारतीय स्तर पर किसान मसीहा के रूप में स्थापित होना किसी आश्चर्य से कम नहीं है।
ऐसे में चौधरी चरण सिंह समकालीन पीढ़ी के लिए उस दौर के अचंभित करने वाले नेता के तौर पर ही पहचाने जाते हैं। उनके किसान हितैषी व्यक्तित्व का ही प्रभाव रहा कि मौजूदा भारत सरकार को चुनावी वर्ष में चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न से सम्मानित कर उस महान धारा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी पड़ी।
चौ. चरण सिंह ने लोकतांत्रिक भारत के इतिहास में पहली बार प्रशासनिक सेवाओं में खेतिहर और ग्रामीणों के लिए पचास फीसद आरक्षण की बात की। लालकिले की प्राचीर से बोलते हुए खेती-किसानी और नौजवानों के रोजगार को ही मुद्दा बनाते रहे। जहां एक ओर उन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार से खुद को आजीवन बचाए रखा, वहीं अपने से जुड़े लोगों की शुचिता और साख के मजबूत बने रहने के लिए विशेष अनुशासन के नियम को भी बनाए रखा। उनके व्यक्तित्व का ही असर था कि राजनीति में गलत और अन्याय करने वाला शख्स उनके आसपास भी नहीं आ सका।
देश के शीषर्स्थ पद पर पहुंचने की यात्रा के दौरान वे राग-द्वेष से पूरी तरह मुक्त रहकर अपनी दिनचर्या का संपूर्ण समय समाज के वंचित लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के विषय में कार्य करते रहे। उनके लेखन को पढ़ने और समझने से एक दृष्टि पैदा होती है कि कैसे राजनीति में रहते हुए चकाचौंध से दूर रह कर आमजन के हित का काम पूरी ईमानदारी से किया जा सकता है। 1937 में पहली बार बागपत-गाजियाबाद परिक्षेत्र से चुनाव जीतने के बाद ही उन्होंने ‘लैंड यूटीलाइजेशन बिल’ बनाकर सरकार द्वारा इस पर विशेष विचार का आग्रह किया था। फलस्वरूप किसान आंदोलन के अग्रणी नेताओं ने उन्हें विशेष महत्त्व दिया। किसान आंदोलन के प्रो. एन.जी. रंगा ने ‘मंडी समिति एक्ट’ में चरण सिंह के सुझावों को शामिल किया था। 1950 में यूपी के मुख्यमंत्री संपूर्णानंद की सरकार में चौधरी साहब के प्रयास और मार्गदर्शन में ही जमींदारी उन्मूलन विधेयक बना जो एक जुलाई, 1952 को लागू भी हो गया।
इसी तरह 1964 में सुचेता कृपलानी की सरकार में बतौर कृषि मंत्री उन्होंने ‘कृषक समाज’ की स्थापना के माध्यम से किसानों को आधुनिक तकनीक से जोड़ने का प्रयास शुरू किया जिसे आगे बढ़ाते हुए मुख्यमंत्री बनने के बाद ‘चकबंदी कानून’ को अतिरिक्त मजबूत करते हुए किसान हित का ध्यान रखा। 23 दिसम्बर, 1977 को केंद्र सरकार द्वारा उन्हें मंत्रिमंडल से निकाले जाने के विरोध में आयोजित किसान रैली की ऐतिहासिक भीड़ के विषय में जानकर तत्कालीन समय में उनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
1977 में जनता पार्टी की प्रथम बैठक में भारतीय अर्थव्यवस्था और किसान नीति की बेहतरी के लिए बनाई गई रिपोर्ट की चर्चा करते हुए उन्होंने लघु एवं कुटीर उद्योग के लिए बजट का 40 प्रतिशत हिस्सा कृषि पर व्यय करने से लेकर 50 फीसद गांवों के विकास पर खर्च करने का पक्ष रखा। किसान विकास योजनाओं में धन की पर्याप्त उपलब्धता करने के लिए उन्होंने अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान नाबार्ड का गठन किया जिसकी सफलता आज भी निर्विवाद है। ‘मेरे सपनों का भारत’ विषय पर चर्चा करते हुए उन्होंने पांच बिंदुओं पर अपनी बात कही थी कि प्राथमिक आवश्यकताएं सब की पूरी हों, ऐशो-आराम की चीजें नहीं। दूसरे, सब को रोजगार मुहैया हो, तीसरे, अमीरों और गरीबों में अंतर कम से कम होता जाए। चौथे, हर आदमी ईमानदार हो अर्थात देश में भ्रष्टाचार न हो और हर आदमी रोटी कमाने के काम में स्वतंत्र रहे, अपने कर्त्तव्य का ईमानदारी से पालन करता रहे। पांचवें, हर आदमी अपने मुल्क को तरक्की की बुलंदियों तक पहुंचाने का स्वप्न देखे और एक यह भी कि भारत में ऊंच-नीच का भेदभाव बिल्कुल न रहे।
इसके साथ ही चौधरी साहब ने एक ठोस आर्थिक नीति का मॉडल प्रस्तुत किया। गांधीवादी परंपरा के चौधरी चरण सिंह अपने सार्वजनिक जीवन में व्यक्तिगत संपत्ति के आग्रह से पूरी तरह दूर रहे। 1974 में उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनके दो प्रिय शिष्य नौजवान सतपाल मलिक और राजेन्द्र चौधरी उभरे जो आज भी उस धारा के प्रकाश बिंदु के रूप में क्रमश: पूर्व राज्यपाल एवं पूर्व कैबिनेट मंत्री के रूप में उनकी वैचारिकी को जीवंत बनाए हुए हैं। बीते कुछ वर्षो में जिस तरह किसानों के मुद्दों और उनका दखल एक दबाव समूह के रूप में उभरा है उसे चौधरी साहब की नीतियों के आधार पर समाजवादी विचार परंपरा के वाहक अखिलेश यादव राजनीति के केंद्र में बनाए हुए हैं। आज जब राजनीति व्यवसाय, विचारहीनता और पदलोलुपता के मकड़जाल में उलझता चला जा रही है, ऐसे में चौधरी चरण सिंह की याद बेपटरी हो चुकी राजनीति में प्रकाशपुंज की भांति प्रतीत होती है। चौधरी साहब की पुण्यतिथि पर सच्ची श्रद्धांजलि उनकी किसानोन्मुख छवि पर आमजन के बीच विमर्श करते हुए किसानों की मूलभूत समस्याओं के विषय में मौलिक एवं सहज समाधान प्राप्त करने का प्रयास हो सकती है।