दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय जनता पार्टी के सांसद निशिकांत दुबे की शिकायत के आधार पर लोकपाल द्वारा झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के प्रमुख शिबू सोरेन के खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही में हस्तक्षेप करने से सोमवार को इनकार कर दिया।
पूर्व मुख्यमंत्री ने दलील दी थी कि सात साल की अवधि समाप्त होने के बाद संबंधित कानून के तहत शिकायत नहीं की जा सकती, लेकिन अदालत ने कहा कि यह तर्क उच्च कार्यालयों में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए लाए गए अधिनियम के मूल उद्देश्य से ऊपर नहीं है।
न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद ने कहा कि लोकपाल की कार्यवाही के साथ-साथ शिकायत को चुनौती देने वाली झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री की याचिका ‘‘समय पूर्व’’ दाखिल की गई। न्यायाधीश ने सोरेन की याचिका पर फैसला सुनाते हुए कहा कि अभी इसका वक्त नहीं आया है।
उन्होंने कहा कि यह लोकपाल को तय करना है कि कार्यवाही को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त सामग्री है या नहीं।
अगस्त 2020 में की गई शिकायत में झारखंड की गोड्डा सीट से भाजपा के लोकसभा सदस्य दुबे ने दावा किया, ‘‘शिबू सोरेन और उनके परिवार के सदस्यों ने सरकारी खजाने का दुरुपयोग करके भारी संपत्ति अर्जित की और घोर भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हैं।’’
यह शिकायत मिलने के बाद लोकपाल ने केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) को सोरेन के खिलाफ प्रारंभिक जांच करने का निर्देश दिया ताकि यह पता लगाया जा सके कि उनके खिलाफ कार्यवाही के लिए प्रथम दृष्टया कोई मामला बनता है या नहीं।
न्यायमूर्ति प्रसाद ने अपने 31 पृष्ठ के फैसले में वरिष्ठ नेता के इस आरोप को खारिज कर दिया कि यह मामला ‘‘दुर्भावनापूर्ण’’ है। उन्होंने कहा कि लोकपाल एक स्वतंत्र प्राधिकरण है और उसने सीबीआई द्वारा प्रदान की गई सामग्री पर अभी तक गौर नहीं किया है।
अदालत ने कहा, ‘‘लोकपाल के समक्ष कार्यवाही के दुर्भावनापूर्ण और राजनीति से प्रेरित होने की आशंका संबंधी आरोप को स्वीकार नहीं किया जा सकता।’’
इसने स्पष्ट किया कि वह शिकायत के गुण-दोष पर कोई टिप्पणी नहीं कर रही है। इसने कहा कि उच्चतम के फैसले के अनुसार, भ्रष्टाचार ऐसी महामारी है जो न केवल संक्रामक है बल्कि यदि इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो यह जंगल में आग की तरह फैल सकती है।
उच्च न्यायालय ने 12 सितंबर, 2022 को लोकपाल की कार्यवाही पर रोक लगा दी थी और कहा था कि मामले पर विचार की आवश्यकता है।
सोरेन ने उच्च न्यायालय के समक्ष दलील दी थी कि उनके खिलाफ मामला ‘‘पूरी तरह से दुर्भावनापूर्ण’’ और ‘‘राजनीति से प्रेरित’’ है।
उन्होंने दलील दी थी कि शिकायत पर भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल द्वारा विचार नहीं किया जा सकता क्योंकि आरोप शिकायत प्रस्तुत करने की तारीख से सात साल पहले के समय से संबंधित थे।
लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 की धारा 53 के तहत प्रावधानों के अनुसार, शिकायत में उल्लिखित अपराध किए जाने की तारीख से सात साल गुजरने के बाद शिकायत नहीं की जा सकती है।
जवाब में, लोकपाल ने कहा कि कार्यवाही कानून के अनुसार की जा रही है और शिकायत अभी भी ‘‘निर्णय के लिए खुली’’ है क्योंकि ‘‘कोई अंतिम दृष्टिकोण नहीं बनाया गया है’’ और वह ‘‘इस स्तर पर शिकायत के गुण-दोष पर टिप्पणी नहीं कर सकता।’’